बुध्धि का हर जीव, तेरे पर हंसता है,
और तुझे गाँव का
गँवार कहता है।
ऐ शहरी जंतु, सबको तेरी औकात पता है,
तू तो गटर के पानी
मे नहाता है।
मिट गया यहॉं हर इंसान, गुलामी करते करते,
तू इसे रोजगार और तरक्की कहता
है।
वापस आजा अपनों के पास, अपने पते पर,
वापस आजा अपनों के पास, अपने पते पर,
जहां प्रेम के खजाना
हमेशा भरा रहता है।
मोबाईल नम्बरों मे
सारे रिश्ते कैद रहते हैं,
तू इन मशीनों को परिवार कहता है।
बच्चे बाल घर मे रोते-बिलखते
हैं,
और माँ-बाप व्रध्ध आश्रम मे कराहते रहते
हैं।
माँ-बाप को छोड़, मज़ारों मे भगवान ढूंढ्ता है,
पर आज ज़नाज़ों को कंधे तरसते रहते हैं,
और तू फेसबुक मे सहारा ढूंढ्ता रहता है,
नादान शहरी तू तो सांसें भी उधार की लेता है।
सारे रिश्तों को तू
भार कहता है,
वो कलेजा लेकर मिलने
आते हैं,
तू फरेबी व्यस्तता
बता बहका देता है,
तू रिश्तों का मान
भी न करता, वो जान लुटाते हैं।
पहले पंचायतें-खापें हर समय खड़ी रहतीं थी,
पर शहरों मे बाबु, वकील, डाक्टर ज़ेब कतरते हैं।
पहले बैलगाडी में सब बैठ जाते थे,
पर अब कार मे अकेला
तन्हा रोता है।
अब बच्चे सभ्यता-संस्कार जानते नही,
विधर्मियों से
रिश्ते बना कर भाग जाते हैं,
शहरी तू इस नये दौर के पतन को कहता है,
हम पुजारी विकास-आधुनिकता के हैं।
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