हिमाचल प्रदेश के जनपद कुल्लु में स्थित मनिकर्ण हिंदु
तीर्थ प्रतिवर्ष अपनी
आस्था और सुंदरता के कारण लाखों श्रधालुऑ को अपनी ओर आकर्षित करता है। समस्त मनिकर्ण क्षेत्र अनुपम प्राकर्तिक सुंदरता का
अनुपाम भंडार है। यहॉ एक ओर पवित्र पार्वती नदी का शरीर जमाने वाला बर्फीला पानी
बहता है वहीं दूसरी ओर उबलते पानी के झरने सभी को मंत्रमुग्ध एवम अचम्भित कर देते
हैं। सर्व-शक्तिमान देवों के देव, महादेव की इस अदभुद शक्ति एवम लीला को देखकर
अज्ञानी नास्तिक भी आस्तिक हो कर आस्था मे नतमस्तक हो जाता है। इस क्षेत्र की
यात्रा से एवम मंदिरों में भगवान के दर्शन मात्र से ही अदभुद मानसिक एवम
आध्यात्मिक शांति प्राप्त होती है।
पहली बार, सन 1900 के आसपास, श्री राम मंदिर के
पास, गर्म पानी के लगभग 15 झरने, जिनका पानी लगभग 15 फीट की ऊँचाई से, बहुत तेज वेग से गिरते हुये देखा गया था। पानी के साथ कभी-कभी बेश्कीमती
पत्थेर भी (मणी) निकलते थे। मनिकर्ण के गर्म जल के चश्मों के पानी का तापमान 90.C से 100.C रहता है। चश्मों का
पानी एकदम साफ होता है और उसमे गंधक नही होती है। इन चश्मों के पानी मे पके चवल-दाल
आदि का स्वाद विषेष स्वदिष्ट होता है। इस गर्म पानी मे पकने मे उतना ही समय लगता
है, जितना कि चुल्हे की
आग मे लगता है। यह आस्था है कि यहॉ के कुंडों मे नहाने से गठिया इत्यादि रोग भी
ठीक हो जाते हैं।
मनिकर्ण धाम की समुद्र तट से ऊँचाई 5500
फुट (2659 मीटर) है। जाड़ों मे यहॉ बर्फ गिरती है तथा गर्मियों मे यहॉ मौसम बहुत
सुहावना रहता है।
ब्रह्माण्ड पुराण के अनुसार, एक बार आशुतोष भगवान शंकर, माता पार्वती के साथ, भ्रमण करते हुए, इस दिव्य सुंदर स्थान आ पहुँचे। यहाँ
की आलौकिक सुन्दरता पर मंत्रमुग्ध होकर, भगवान शंकर एवम माता पार्वती ने 11000 वर्षों तक यहाँ निवास किया और घोर तप
किया। एक बार जलक्रिड़ा करते हुये, माता पार्वती के कान की बाली की एक मणि गिर कर पाताल लोक मे खो गयी। भगवान
शंकर ने अपने गणों को आदेश दिया कि खोई मणि को खोज कर लायें। काफी खोजने के बाद भी
जब मणि नही मिली तो क्रोधित होकर शंकर भगवान ने अपनी तीसरी आंख खोली। सारी स्रष्टि
जलमग्न होकर कांपने लगी। देवता भी भयभीत हो गये। शंकर भगवान के तीसरे नेत्र से
नैना भगवती ने पाताल के महाराजा एवम मणियों के स्वमी शेषनाग को माता पार्वती के
कान की बाली की मणी के खोने के बारे मे बताया। शेषनाग ने मुंह से जोर की फुंकार
लगायी जिससे उस स्थान पर पृथ्वी मे से गर्म जल की फुहार प्रकट हो गयी, जो आज तक निरंतर बह रही है।
गर्म जल की इस धारा के साथ, माता पार्वती की बाली की मणि के
साथ अन्य बहुत सी मणियॉ भी निकल आयीं। माता पार्वती ने अपनी मणि ले ली तथा अन्य
सभी मणियों को पत्थर बन जाने का श्राप दे दिया। भगवान शंकर का भी क्रोध शान्त हो
गया। इसी से इस स्थान का नाम मनिकर्ण पड़। शंकर भगवान और माता पार्वती का तपोस्थान
होने के कारण इस स्थान को पुराणों में ‘अर्धनारी क्षेत्र’ कहा गया है। यह स्थान भगवान शंकर को
अत्यंत प्रिय होने के कारण, काशी में भी गंगा नदी पर अपने स्थान का नाम ‘मणिकर्णिका घाट’ रखा।
महाभारत के समय, देवराज इन्द्र ने अर्जुन को
पाशुपति शस्त्र दिया। इसमें अर्जुन की परीक्षा लेने के लिये भगवान शंकर जी ने भील का रुप धारण करके इस स्थान पर अर्जुन से
युध्ध किया। अर्जुन की युध्ध कला से प्रसन्न होकर शंकर भगवान ने अर्जुन को वरदान
दिया। मनिकर्ण के गर्म पानी के चश्मों मे पके प्रसाद तथा भोजन खाने से तथा स्नान
करने से अनेक रोगों का निदान हो जाता है तथा पाप नष्ट होकर मोक्ष की प्रप्ति होती
है। मनिकर्ण तीर्थ की यात्रा करने से अनेक सिध्धियों की प्राप्ति होती है तथा
मनोकामना पूर्ण होती हैं।
मनिकर्ण तीर्थ भगवान राम से भी जुड़ा हुआ
है। इसका वर्णन प्राचीन हिन्दु ग्रन्थ रामायण में भी मिलता है। भगवान शंकर एवम राम
एक दुसरे के अराध्य रहे हैं। भगवान शंकर की अराधना करने के लिये भगवान राम मनिकर्ण
धाम आते रहते थे। इसके अतिरिक्त मनाली के पास वशिष्ठ मे भगवान राम के गुरु वशिष्ठ जी
का स्थान है। भगवान राम अपने गुरु के पास भी आशीर्वाद एवम ज्ञान प्रप्ति के लिये
आते रहते थे। समस्त हिमाचल प्रदेश क्षेत्र से अनेक देवी-देवता भी सिध्धि हासिल
करने के लिये यहां तप करते हैं।
इस धाम से एक और कहानी जुड़ी हुई है।
कुल्लु राज्य मे 16वी शतब्दि मे राजा जगत सिंह का राज्य था। एक बार किसी चुगलखोर
ने राजा से झुठी शिकायत कर दी कि टिपरी
गॉव, जो मनिकर्ण से 25
कि.मी. की दूरी पर है, में एक ब्राह्मण के पास अकूत मात्रा
में सच्चे मोती है। चुगलखोर ने यह भर दिया कि यह मोती राजा के पास होने चाहिये। राजा भी तीर्थ यात्रा पर मनिकर्ण आते रहते थे। राजा ने वास्तव नें गरीब ब्राह्मण को बुलाकर आदेश दिया कि सारे मोती हमारे हवाले कर दो। ब्राह्मण तो अत्यंत गरीब था। उसने तो कभी मोती देखे तक नहीं थे। ब्राह्मण ने राजा को कसम खाकर विश्वास दिलाने की कोशिश की। परन्तु राजा नहीं
माना। राजा ने ब्राह्मण को आदेश दिया कि वह तीन दिन बाद मनिकर्ण वापस आयेगा, तब मोती तैयार रखना।
वापसी में जब राजा मनिकर्ण पहुंचा तो
उसने ब्राह्मण को मोती देने के लिये कहा। भयभीत ब्राहम्ण ने अपने आपको परिवार सहित
एक कमरे मे बंद कर, कमरे में आग लगा दी और मौत को गले लगा लिया। इससे राजा को बहुत दुःख हुया और
ब्रहम हत्या के सजा स्वरुप राजा को कुष्ठ रोग हो गया। राजा के पीने के पानी में खून तथा खाने में
कीणे दिखने लगे। किसी भी तरह के उपचार से भी राजा को कोई लाभ नहीं हुआ।
अंत मे दुःखी राजा त्रिकालज्ञ योगी
महत्मा केशव दास फुहारी की शरण में गया। उन्होंने राजा को अयोध्या से भगवान राम की
की मूर्ति लाकर मनिकर्ण के मंदिर में स्थापित करने को कहा। राजा ने ऐसा ही किया। अपना
सब राजकाज भगवान राम को अर्पण कर दिया और स्वंम को भगवान राम का दास घोषित कर
राजकाज चलाया। राजा के अंतिम 26 वर्ष और देह त्याग होने तक, राजा जगत सिंह ने इसी तरह यहीं
बिताये। राजा की पत्थर की मूर्ती यहां के हनुमान मंदिर मे स्थापित कर दी गयी जो आज
भी यहां विराजमान है। राजा जगत सिंह के समय से ही विश्व विख्यात कुल्लु दशहरा मेले
का आयोजन भी मनिकर्ण से ही प्रारम्भ हुआ। राजा के वंशज स्थापित परम्परा के अनुसार
आज भी भगवान राम की सेवा करते हैं।
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