एक समय हुआ करता
था जब सिनेमाघर किसी
भी शहर के विकास और स्तर का प्रतिबिम्ब हुआ करते थे। सिनेमाघर वाला
इलाका नगर का सबसे प्रमुख और मंहगा इलाका हुआ करता था। उसके आसपास एक मिनी
व्यवसायिक और आवासिय टाउनशिप बस् जाया करती थी जहां चौबीसों घंटे चहल-पहल रहती थी।
वहाँ एक अलग दुनिया होती थी। यही हाल लगभग देश की राजधानी दिल्ली का भी कभी था। स्वाभिमान,
स्वतंत्रता, और
स्वावलंबन के सशक्त आधार पर सिनेमा घर व्यावसाय की बुनियाद तैयार हुई थी।
दिल्ली में सिनेमाघरों का इतिहास बहुत पुराना है। रामपुरा
में टिन के हाल में राजकमल सिनेमा चलता था जिसमें लकड़ी की लगभग सौ कुर्सियां बैठने
के लिये होती थीं। मात्र आठ आने टिकट होती थी। दर्शक हाल के अंदर बीड़ी भी पीते
रहते थे। ऐसा लगता था कि किसी गांव में बैठ कर पिक्चर देख रहे हों। पास ही
सब्जी-मंडी रोड पर अम्बा सिनेमाघर थी जहां दिलीप कुमार-सायरा बानो की
गोपी फिल्म महीनों चली थी।
दिल्ली शहर किसी समय में सिनेमाघर-थियेटरों का शहर होता था। शहर फैलता गया, आबादी बढ्ती गयी पर देखते-देखते कई सिनेमाघर बंद होते
गए। आज
बदले नजरिये के कारण बड़े पर्दे खत्म होते जा रहें हैं। वह
सिनेमाघर जिनमें कई-कई महिनों
तक
हाउसफुल रहता था और जो शहर की लाइफ लाइन हुआ करते थे, आज वीरान
पड़े हैं और उन
पर ताले पड़े हैं। तालों पर भी जंग लग गयी है। कुछ सिनेमाघर को
तोड़्कर दुकानें
अथवा मार्केट बना दी गई हैं। आज उनकी पहचान भी खत्म हो रही है।
पुरानी दिल्ली की धड़्कन चांदनी चौक में एक
समय चार
सिनेमाघर थे और अब चारों बंद हो गए। गौरी शंकर मंदिर के सामने मोती सिनेमा था
वह बंद
हो गया है। 1970 में, मै अपने स्वर्गिय पिताजी के साथ एक बरात में
चांदनी
चौक दिल्ली आया था। तब हमको लड़्की वालों ने नवीन निश्छल और रेखा की 'सावन भादों' इस सिनेमाघर में नौ से बारह वाले शो में रात्री
में दिखाई थी। वहीं की कैंटीन में रात की दावत का भी प्रबंध किया गया था। आज किसी
को अहसास भी नहीं कि वह पहचान भी खत्म होती जा रही है।
लगभग सौ मीटर आगे और एक चर्च से थोड़ा पहले कुमार टाकीज़ नामक
एक और सिनेमाघर था। वह भी बंद हो गया और
उसमे अब मैकडोनल्ड
रेस्तरा खुल गया है और कुछ दुकानें खुल
गई हैं। थोड़ी सी दूरी पर ऐतिहासिक शीश गंज गुरुद्वारे के सामने, फव्वारा चौक पर मैजेस्टिक सिनेमाघर था जो अब
बंद हो गया । मजेदार
बात यह है कि गुरुद्वारे ने
ही सिनामाघर को खरीद लिया यानी अब सिनेमाघर से ज्यादा धनी गुरुद्वारे हैं
और अब
वहां एक सिख धर्मशाला है।
थोड़ा आगे मुड़कर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन जाने
वाली सड़्क पर लगभग एक फर्लांग की दूरी पर जुबली सिनेमाघर
था। वह भी अब बंद हो गया। दूसरी तरफ फतहपुरी चौक से मुड़कर, जो सड़्क पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन
से आज़ाद मार्केट की ओर जाती है वहां नॉवल्टी सिनेमाघर था। वह भी अब बंद हो गया।
मै जब भी बचपन में दिल्ली आता था ये सब सिनेमाघर
दर्शकों से
खचाखच भरे रहते थे। सस्ती टिकट होने के कारण टिकट मिलना बहुत बड़ी
बात होती
थीं। एक शो पहले टिकट खरीद कर चांदनीचौक घुमने चले जाते थे। टिकट एक रुपए से प्रारम्भ होकर पांच से दस रूपए तक होती थी।
धीरे धीरे महंगाई के कारण टिकट महंगी होती गईं। पहले चांदनी चौक घूमने
का
मतलब होता था दिल्ली घूम आना। निम्न-मध्य वर्ग और मध्य वर्ग के
लोग चांदनी चौक घूमने, चांट
खाने और
शॉपिंग करने जाते थे। कनॉट प्लेस सिर्फ उच्च-मध्य वर्ग और संभ्रांत वर्ग के लोग ही जाते थे।
तथाकथित कलाप्रेमी बेकार के कलाकारों
तथा बेकार की कलाक्रतियों के लिये तो हायतोबा करते रहते हैं पर इतनी बड़ी संख्या
में सिनेमाघरों के बंद होने पर भी गहरी नींद सोये हुये हैं। इतनी बड़ी गम्भीर
समस्या पर कोई भी अपना मुँह भी नहीं खोल रहा है। सिनेमाघर व्यवसायिक प्रगति के
साथ-साथ लोगों के विचारों की भी गतिशीलता का भी मानक होता है।
चांदनी चौक चांट और मिठाई के लिये भी
बहुत प्रसिद्ध था। विग पूरी वाले के छोले भटूरे और और गर्मागर्म गुलाब जामुन की बड़ी सी दुकान, गौरी शंकर मंदिर और जैन मंदिर के सामने होती
थी। अब वहां फूल वाले बैठते हैं। वह दुकान भी बंद हो चुकी है। वहीं
पर ऐतिहासिक घंटे वाली मिठाई की दुकान होती थी। वह दुकान भी बंद हो चुकी है। टाउन हॉल के सामने कंचे वाली लेमन की
बोतल पीने
को मिलती थी। दरीबा के बाहर देसी घी की जलेबी की दुकान थी। सौभाग्य
से कंचे वाली
लेमन और देसी घी की जलेबी की दुकान आज
भी है।
मेरे कालेज और विश्वविध्यालय के
वरिष्ठ साथियों ने चांदनी चौक में कलकत्ता की तरह ट्राम को
चलते देखा था जिसमें
ड्राइवर पीतल का बड़ा घंटा बजाता चलता था । यह ट्राम चांदनी चौक से फतह पुरी की तरफ जाती थी। इसी तरह पुरानी सब्जी मण्डी
और बर्फखाना के बीच भी ट्राम चलती थी। अंग्रेजों की इस देन को हम
भारतीय चला नहीं पाये और साठ के दशक में इसे भी बंद कर दिया गया।
बंद होने का खेल यहीं नहीं रुका। पुलबंगश से आगे, फिल्मिस्तान सिनेमाघर था। जो काफी लंबे समय तक चलता
रहा। पर अब बंद हो चुका है। इसी सड़्क पर अम्बा सिनेमा है जो किसी तरह अभी भी चल
रहा है।
थोड़ा आगे रोशनारा रोड पर पैलेस
सिनेमा था। जो अब बंद हो चुका है। 1951 में निर्मित इस सिनेमाघर का नवीनीकरण 1970 के आसपास हुआ और इसमें 70 एमएम का बड़ा
स्क्रीन और
आधुनिक साउंड सिस्टम लगाया गया। जनता पार्टी की सरकार के
कार्यकाल में, जनवरी 1978 में, एक फिल्म फेस्टिवल हुआ था। तब
दर्शकों में श्रीमति इन्दिरा गांधी इस सिनेमाघर में फिल्म को देखने आईं थीं। लोग
पिक्चर छोड़ श्रीमति गांधी को देखने दौड़ पड़े। यह सिनेमाघर भी बंद पड़ा है।
नई दिल्ली स्टेशन के पास शीला सिनेमा है । नवीकरण के
बाद उसमें 70 एमएम सिस्टम का बड़ा स्क्रीन लगाया गया। लिबर्टी सिनेमा, करोल बाग़ के पास आनंद पर्वत में अभी भी है। गोलचा सिनेमा, दरिया गंज और डिलाइट सिनेमा, आसफ अली रोड पर आज भी हैं और सौभाग्य
से चल भी रहे हैं।
मिनर्वा सिनेमाघर, मोटर मार्केट, कश्मीरी गेट और रिट्ज सिनेमा, कश्मीरी गेट के मेट्रो स्टेशन के पास हुआ
करते थे। यहां मैंने श्रिषि कपूर-डिम्पल कपाड़िया की 'बाबी'
फिल्म देखी थी। दोनों सिनेमाघर अब बंद हो चुके हैं।
दिल्ली का सब्से सस्ता सिनेमाघर रॉबिन टॉकिज जो पुरानी दिल्ली में घंटाघर
चौक से आगे बाज़ार में था। बैठ्ने के लिये बैंच होते थे। चार आने से एक
रूपए
के बीच टिकट होती थी।
लाइट चले जाने पर या फिल्म की रील कट जाने
पर खूब
शोर होता था । सीटियां बजती थीं। महिलायें और
परिवार यहां बहुत
कम आते थे। यहां
भी मैंने फिल्म 'बेईमान' देखी
थी। यह सिनेमाघर अपने हुल्लड़ के लिये जाना जाता था।
झन्डेवालान में 'नाज़' सिनेमाघर था । जो दिल्ली के
सबसे पुराने सिनेमाघर में जाना
जाता था। इसके पीछे दिल्ली विश्वविद्यालय का भारती महिला कॉलेज था । इस
थियेटर में विश्वविद्यालय की लड़कियां और
उनके दोस्त भरे
रहते थे । 1995 के आते-आते
इस पर भी ताले पड़ गये। इमरजेंसी के बाद यहां पर ' आंधी ' फिल्म लम्बे
समय तक चली थी।
इसी तरह पहाड़गंज का 'खन्ना' सिनेमाघर शायद अभी तक चल रहा है।
ये सभी सिनेमाघर आज़ादी से पहले
अर्थात अंग्रेज़ो
के ज़माने के थे। अंग्रेज़ो ने सिनेमाघररौं और पिक्चरौं को खूब प्रोत्साहन दिया।
सिनेमाघररौं से एक ओर जहां व्यापार और रोजगार
को बढ़ावा मिलता था वहीं सरकार की आय भी बढ़्ती थी तथा जनता को सस्ता मनोरंजन
मिलता था। पर सरकारौं की अनदेखी और प्रशानिक भ्रष्टाचार ने सिनेमाघरौं पर ताले
लट्का दिये तथा धीरे धीरे अधिकांश सिनेमाघर बंद हो गए।
आजादी के बाद बहुत कम नए सिनेमाघरौं
का निर्माण हुआ। उनमें से एक पुरानी दिल्ली घंटा घर के पास अम्बा सिनेमाघर
है, जो 70 के बाद बना। सौभाग्य
से यह
अभी भी चल रहा है। मॉडल टाउन में अल्पना
सिनेमाघर 1967 के आसपास खुला। दिल्ली
विश्वविद्ध्यालया के पास होने के कारण इसमें छात्र-छात्रायें भरे रहते थे। अभिनेता
राज्कुमार की फिल्म
' हमराज़' के प्रीमियर शो में
अभिनेता राजकुमार खुद
आये थे। भीड़ को कंट्रोल करने में पुलिस के पसीने छूट गये थे। यह अभी चल रहा है। मुखर्जी नगर में बत्रा सिनेमाघर बहुत बाद में खुला पर वह
जल्द ही बंद
हो गया। अशोक विहार में दीप सिनेमाघर
बना जो खूब
चलता था पर कुछ साल पहले इसमें भी ताले लटक गये और इसमें भी मार्केट, दुकानें और रेस्तरां खुल गये हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय के नजदीक होने
के कारण ये सारे सिनेमाघर ज़्यादातर भरे रहते थे। इनमें
छात्र-छात्राओं
की खूब भीड़ रहती मिलती थी। जो छात्र-छात्राऐं
एकांत चाहते थे उनके लिये सिनेमा घर सबसे सस्ते और सुरक्क्षित स्थान होते थे। प्रेमी
जोड़े भी सिनेमा घर में एकांतवास का आनंद लेते थे। परंतु कम लाभ, झंझट
ज्यादा और सरकारों की उदासीनता के कारण, एक जमाने में शहर की धड़्कन कहे जाने वाले सिनेमाघर एक के बाद एक सिनेमाघर
बंद होते चले गये।
नई दिल्ली में सिनेमाघर व्यवसाय
ज्यादा नहीं चल पाया। कनॉट प्लेस जो अब
राजीव चौक हो चुका है में जहां व्यापारिक गतिविधियां दिन दुगनी रात
चौगनी बढ रहीं हैं वहां का सबसे प्रमुख लैंड्मार्क रीगल
सिनेमाघर बंद हो चुका है। बाकी सभी सिनेमाघर किसी तरह आज चल रहे हैं। रीगल सिनेमाघर के
बंद होने
पर दिल्ली की जनता को बहुत दुख हुआ था और बो काफी भावुक भी हो गए थे।
प्लाजा, ऑडियन्, रिवोली, रीगल नई दिल्ली के दिल हुआ करते थे। मैंने
इन सिनेमाघरौं में पत्थर और पायल, शोले, जुदाई, आराधना, शान आदि फिल्में अपने दोस्तों के साथ देखीं थी। दिल्ली के
सभी सिनेमाघरों
के आसपास टिकट ब्लैक का बहुत सुचारु धंधा खुलेआम
चलता था। जब भी कोई नई अथवा
अच्छी फिल्म
आती थी तो ये लोग सक्रिय हो जाते थे और
सिनेमाघर के बाहर, ऊंची
कीमत पर धड़्ल्ले से टिकट बेचते थे।
दक्षिण
दिल्ली के मनोरंजन का प्रमुख नाम साकेत स्थित उपहार सिनेमा अग्नि-कांड के बाद
अदालतों की तारीखों में फंस कर हमेशा के लिये बंद हो गया। कुछ और भी सिनेमाघर हैं
पर वे प्रसिद्ध नहीं हैं।
समय के साथ नए नए मॉल खुल गए हैं। पी वी आर, मल्टीप्लेक्स सिनेमा ने
पुराने सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर का स्थान ले लिया है। जिनमें
कभी-कभी हर शो
में अलग अलग फिल्में चलती है। टिकट भी बहुत महंगी होती है।
कहीं-कहीं तो खाने
पीने के पैकेज के साथ टिकट हज़ारों में भी होती है।
अब प्रश्न यह आता है कि पुराने सिनेमाघर क्यों बंद हो रहे हैं? इसका सही उत्तर है कि हिन्दी
फिल्मों का वितरण अब एक डिस्ट्रिब्यूटर माफिया तथा अंडरवल्ड के हाथ में चला गया है
और वह फिल्मों को बहुत ऊंचे रेट पर बेचता है। इस कीमत पर सस्ते सिनेमाघर लाभ नहीं
कमा सक्ते। कुछ डिस्ट्रिब्यूटर तो दुबई और करांची से भी संचालित होते हैं। ऐसा
प्रतीत होता है कि कश्मीर की तरह कहीं दिल्ली के भी सभी सिनेमा घर एक-एक कर सभी
बंद हो जायेंगे।
दुसरे, दिल्ली में जमीनों के रेट बहुत
ऊंचे होने के कारण इनमें दुकानें-मार्केट बना कर ऊंची
कीमत पर बेच
देने से ज़्यादा मुनाफा कम समय में मालिकों को मिल जाता
है। सरकारों
और प्रशासन ने भी इन्हें खूब निचौड़ा। इनके रखरखाव और तकनीक का खर्चा बढ़ गया है इस
कारण इनके
मालिक उस खर्च पर सिनेमाघर नहीं चला पा रहे हैं ।
आतंकवाद भी सिनेमा हाल के बंद होने
का एक बड़ा कारण है। आज आतंकावाद के कारण मालिकों को सुरक्षा पर बहुत ध्यान देना
पड़्ता है। खालिस्तान आतंकवाद और इस्लामिक आतंकवाद के कारण सुरक्षा पर बहुत खर्च
आता है। इंटरनेट के आने से भी सिनेमा घर व्यवसाय उजड़ गया। पिछ्ले कुछ दशक में, य्ह
व्यवसाय ठप्प होता चला गया। अधिक धन के लालच ने इस दुनिया को खत्म ही कर दिया। कला
पर धन और मुनाफा हावी होता चला गया।
आज भी काफी लोग सिनेमाघर जाकर फिल्म देखना पसंद करते
हैं। सिनेमा घर व्यवसाय स्वदेशी आंदोलन के समान है। कई सिनेमा हॉल तो एतिहासिक महत्त्व भी रखते हैं, इनके बारे में सरकारौं को सोचना चाहिए और इन्हे पुन: शुरू करने
का प्रय्त्न करना चाहिये। क्या कभी वो युग वापस आ सकता है। यह सवाल सभी के दिल में
है।
सनंदर्भ:
1- दैनिक जागरण,
नई-दिल्ली।
2- दि पायनियर,
नई-दिल्ली।
3- दि टाइंम्स आफ़ इंडिया,
नई-दिल्ली।
4- दि आब्जरवर,
नई-दिल्ली।