Saturday, 29 August 2020

जज साहिबा की डॉक्टरेट

 

दिल्ली की चिलचिलाती गर्मी, अराजक माहौल, नित्य घौटालों एवं भ्रष्टाचार के समाचारों से तंग आकर मन को कहीं दूर ठंडक मैं जाकर, शान्ति देने की कामना, से वशीभूत होकर, मैं अपने आप ही हरिद्वार चल पड़ा। संध्या समय मैंने पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से हरिद्वार पैसेंजर गाड़ी पकड़ी।

 

पैसेंजर गाड़ी के अनेक लाभ होते हैं। पहला सीट आराम से मिल जाती है। असली भूखे, नंगे, चोर भारत के मुफ्त में दर्शन हो जाते हैं। साइकिल की गति से चलने के कारण सामान्य ज्ञान, भूगोल, इतिहास, अपने आप अच्छा होता जाता है आदि-आदि। इसी लालच के कारण मैं पैसेंजर गाड़ी से चलता हूं क्योंकि हमारे जैसे हल्की जेब वालों की जेब भी ज्यादा हल्की नहीं होती है। हर वैरायटी के लोगों से आमना-सामना होता है।

 

टे्रन कुछ ही दूर चली होगी परन्तु संध्या से रात्रि हो गयी यद्यपि इसी बीच मैंने टे्रन में कई घण्टे बिताये। रात्रि के थोड़े से अंधेरे में कहीं-कहीं बल्व भी टिमटिमाने लगे थे। कहीं-कहीं बल्वों के टिमटिमाने से लग रहा था कि देश में अभी भी बिजली, घर-घर सिर्फ फाइलों में ही पहुंची है।

 

वाइल्ड वैस्ट के डर के कारण मैं अपनी सीट पर चुपचाप बैठा था। मेरठ से पहले तक देैनिक यात्रियों के कारण, यात्री उतरते ज्यादा थे, चढ़ते कम थे। आती-जाती लड़कियों, महिलाओं पर सीटी बजाना, फिकरे कसना यहां एक राष्ट्रीय पर्व के समान है। सभी देखते हैं, ज्यादातर करते हैं। शायद थकान और तनाव दूर करने का कोई मुक्त का लुकमान हकीम का नुस्खा हो। यहां तक कि पुलिस के जवान भी सुनकर अनसुना करते हैं। शायद पुरूषों का यह मानव अधिकार है और महिलाओं के नारित्व का अभिन्न हिस्सा है।

 

मेरठ के पास के किसी स्टेशन से अधेड़ उम्र का एक जोड़ा ट्रेन में चढ़ा, दोनों के चेहरे मुरझाये हुये थे तथा शरीर सूख कर ढ़ांचे के समान ही रह गया था जैसे मक्का के खेत में परिन्दों को उड़ाने के लिए डण्डों पर कपड़े टांग रखे हों। अपने थैले आदि को संभालकर रखने के बाद चेहरों पर कुछ शांत भाव  आये जैसे किसी गंभीर सुनामी से बचकर सकुशल निकल आये हों।

 

एक पोलीथिन के थैले में कुछ राख तथा फटे कागज देखकर बहुत अजीब लगा कि ये क्या ले जा रहे हैं? क्यों ले जा रहे हैं? कहां ले जा रहे हैं? मेरे मन में पोलीथिन के थैले का रहस्य जानने की जिज्ञासा बेकाबू होती जा रही थी तथा मैं अपने को रोकने में एकदम असमर्थ पा रहा था। अन्त में मेरे अंदर की जिज्ञासा ने  मेरे धैर्य और झिझक को पीछे छोड़ दिया और मैंने बिना किसी परिचय एवं झिझक के एक द्रोण प्रक्षेपात्र की तरह अपने प्रश्न का गोला फोड़ दिया।

 

भाई साहब इस पोलीथिन के थैले में क्या ले जा रहे हैं? मेरे इस प्रश्न को सुनकर दोनों ने चौंककर एक लम्बी दर्दभरी साँस ली। इसके बाद महिला ने प्रश्नभरी आंखों से अपने पति की ओर देखा। जैसे वह कह रही हो आप ही कहानी के वाचक बन जायें।

 

पति देव ने फिर एक लम्बी साँस ली तथा जिस तरह बेताल पेड़ से उतरकर कहानी सुनने के लिए राजा विक्रमादित्य के कंधे पर लटक जाता है ठीक उसी तरह मैं भी उचककर उसकी बगल में जा बैठा।

 

एक थके हारे यात्री की तरह वर्मा साहब यानि कि पतिदेव ने आप बीती कहानी सुनानी प्रारम्भ की। वर्मा साहब पेशे से शिक्षक थे तथा उनकी पत्नी श्रीमति अल्पना वर्मा भी कहीं शिक्षक थी। दोनों गंगा-यमुना के दोआब के क्षेत्र में अंधेर नगरी चौपट राज्य विश्वविद्यालय से सम्बन्धित महाविद्यालयों में शिक्षक थे। दोआब का क्षेत्र पहले किसान, जवान, दूध के लिए सुप्रसिद्ध था परन्तु आधुनिक ग्लोबल एवं सैकुलर भारत में यह क्षेत्र अपराध, अपहरण, पशु वध , भूमाफिया, शिक्षा माफिया आदि काले धंधों के लिए कुख्यात हो गया है। ऐसे ही शोध माफिया के चंगुल से सकुशल बचने की खुशी में ये दंपत्ति तीर्थ यात्रा पर जा रहा था।

 

वर्मा साहब ने आगे बोलना प्रारम्भ किया-

 

मई माह का समय था। चारों तरफ तमतमाती धूप की गर्मी से धरती बुरी तरह से झुलस रही थी। गर्मी को भगाने के लिए मैं अपनी पत्नी अल्पना वर्मा के साथ ठंडी-ठंडी नींबू की शिकंजी का मजा ले रहा था कि अचानक मोबाइल फोन की घंटी बजी। मोबाइल के बजने के साथ हमारे दिलों की धड़कनें और बढ़ जाती है क्योंकि हम जैसे सीधे-साधे शिक्षकों के मोबाइल बजने का अर्थ होता है कि कोई उनके उत्पीड़न एवं शोषण का षडयंत्र कर रहा है। नेता, अधिकारी, व्यापारी एवं शिक्षा माफिया तो मोबाइल के बजते ही दीपावली की लक्ष्मी माता के स्वागत के लिए, उसको सुनने के लिए लपकते हैं परन्तु हम लोग एक अनचाहे खतरे की आशंका से,  कंपकपाते हाथों से उसका रिसिविंग बटन दबाते हैं। मई-जून माह में शिक्षा माफिया वैसे भी ज्यादा ही सक्रिय हो जाते हैं।

 

फोन रिसिव करने पर उधर से मेरे चार दशक पुराने मित्र डाक्टर संजय वर्मा की आवाज आई। आवाज पहचान होने पर कुछ सांस में सांस आई। कुशल क्षेम के आदान-प्रदान के बाद काम की बात प्रारम्भ हुई। डाक्टर संजय वर्मा स्वयं एक वरिष्ठ रीडर हैं। उन्होंने बताया कि उनके एक अत्यन्त पुराने परिचित हैं जो अत्यन्त प्रतिश्षि्ठित शिक्षाविद हैं। वर्तमान में शिक्षाविद की उपस्थिति, सहसा कानों पर विश्वास नहीं हुआ क्योंकि आज यह एक दुलर्भ प्रजाति हो गई है क्योंकि अब शिक्षा माफिया और शिक्षा के दलाल बहुतायात मेंं मिलने वाले प्राणी हैं। अंधेरनगरी चौपट राज्य विश्वविद्यालय तो ऐसे दलालों के लिए एकदम कुख्यात है जहां वे भरे पड़े हैं। उत्तर-भारत से ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत से भी डा0 राधाकृष्णन, प्रोफेसर कोठारी, प्रोफेसर झा, प्रोफेसर देव, प्रोफेसर फिराक आदि के साथ ही यह प्रजाति लुप्त होकर दुलर्भ प्रजाति बन गई।

 

खैर वास्तविकता जो भी रही हो डाक्टर संजय वर्मा के मित्र डाक्टर डी0एस0 वर्मा किसी महाविद्यालय में विज्ञान के रिटायर्ड रीडर थे जो कि बातचीत में शिक्षा के रीडर कम, बिजली के मीटर रीडर ज्यादा लग रहे थे। डींग मारने मेंं उनका कोई जवाब न था। आते ही हमें ज्ञान हो गया कि वो पी0एच0डी0 छापने में अर्धशतक बना चुके  हैं तथा रिसर्च पेपर छापने में शतक बना चुके हैं। उनके लिए छापना इसलिए उचित है क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में शोध कराना तथा शोध पत्र लिखना एकदम असंभव है कोई सिर्फ चोरी, फर्जीवाड़ा करके ही संख्या इतनी कर सकता है।

 

उनके इस प्रताप को देखकर हम उनसे मिलने में घबरा रहे थे तथा उनके अनेक आग्रहों पर हम उनसे मना ही करते रहे तथा मेरी धर्मपत्नी ने तो एकदम मना ही कर दिया क्योंकि आज के पी0एच0डी0 में अर्धशतक एवं शोध पत्रों में शतक वीराें से मिलना किसी अंडरवल्‍​र्ड के माफिया डान से मिलने से कम नहीं तथा मधुमक्खी के

छत्ते में हाथ डालने के समान है।

 

मिलने से मना करने पर भी डाक्टर संजय वर्मा एवं डाक्टर डी0एस0 वर्मा ने टेलीफोन की झड़ी लगा दी तथा दोनो ने हमारा जीना हराम कर दिया। हारकर धर्मपत्नी जी ने रिसर्च एवं शोध पत्र शतकवीर डाक्टर डी0एस0 वर्मा को मिलने का समय दे दिया। विनाशकाले विपरीत बुद्धि। हमने सोचा कि दोनों मिलकर इस आई बला को प्रणाम कर  शान्त कर देंगे। मिलने के लिए हामी भरते ही वर्मा जी मिसाइल की सी तेजी से घर के दरवाजे पर धमक पड़े।

 

डाक्टर डी0एस0 वर्मा को इतनी शीघ्र दरवाजे पर खड़ा देख दिल और दिमाग में किसी अनहोैनी की आशंका उत्पन्न हुई। वर्मा साहब सत्तर वर्ष के आसपास के ही होंगे। बातों में इतने चतुर थे कि चतुराई भी पीछे रह जाये। ऐसे चतुर एवं होनहार खिलाड़ी का हमारे अन्दर इतनी रूचि लेना, वह भी शोध जैसे गंभीर एवं  मंहगे कार्य में बहुत अटपटा सा लग रहा था। जहां शोध मेंं लाखों के वारे-न्यारे हो रहे हों तथा शोध के लादेन ओैर तेलगी हर गली मौहल्ले में अपनी दुकान सजाये बैठे हों, वहां वर्मा जी जैसे महान शोध शतक वीर का इस शोध कार्य के लिए इस अनुभवहीन शिक्षिका के घर चक्कर लगाना, हमको अचंम्भित  (स्तब्ध) कर रहा था। यहां तो शोध मंडी के बाजार भाव, जोड तोड़, काट-पीट का कोई अनुभव ही नहीं था। शायद वर्मा जी को हमारा यही फक्कड़पना वरदान लगा जहां लाखों का फर्जीवाड़ा मुफ्त मेंं ही हो जायेगा तथा अनुभवहीनता के कारण अर्धशतकों तथा शतकों के रिकार्ड के धोखाधड़ी का भी दबदबा बना  रहेगा।

 

हमारे घर आते ही डाक्टर डी0एम0 वर्मा ने अपनी बातों के तीर से हमले करने प्रारम्भ कर दिये। इसके बाद अपने शोध के अर्धशतक तथा शतकों का खुलकर वर्णन किया। इसके बाद अपनी पुत्री के टापर होने का खुलकर वर्णन किया तथा यह भी बताने से नहीं चूके कि नेट अथवा पी0एच0डी0 के बिना ही उन्होंने अपने ऊँचे  सम्बन्धों के चलते सिर्फ एम0 ए0 पास अपनी पुत्री को डिग्री कालेज में प्रवक्ता बनवा डाला था। इस बात को हम दोनों पति-पत्नी आज तक नहीं पचा पाये कि सिर्फ एम0ए0पास डिग्री कालेज में प्रवक्ता किस प्रकार हो सकती है। डाक्टर साहब ने अपनी डींग मे एक और पेैंग बढ़ा दी और बोले कि उन्होंने अपनी लड़की से प्रवक्ता का पद  छु़ड़वा दिया और कुछ समय बाद ही उनकी बेटी श्रीमति पंगु वर्मा ने पद से भी त्याग पत्र दे दिया।  इससे हमारे अंदर हीनता का भाव जागृत हो गया कि हम दोनों पति-पत्नी उसी नौकरी को (प्रवक्ता) को कर रहे हैं जिसको उनकी बेटी ने पलक झपकने के साथ ही पा लिया और एक ही पल में छोड़ दिया।

 

अन्त में डाक्टर डी0एस0  वर्मा ने अपना ट्रंप कार्ड छोड़ा कि उनके दामाद जज हैं इस कारण दुनियां का हर कार्य पलक झपकते ही करने में पूर्ण सक्षम हैं। डाक्टर डी0एस0 वर्मा की कटु बातों से प्रभावित होने के स्थान पर, हम उनसे सशंकित होते चले गये तथा मेरी सीधी-सादी धर्मपत्नी ने इस नटवर लाल डाक्टर की पुत्री का शोध गाइड बनने में असमर्थता दिखाते हुए,डाक्टर साहब को प्रणाम कर राहत की सांस ली।

 

परन्तु डाक्टर डी0एस0 वर्मा उछाड़-पछाड़ के इस खेल के एक मंजे हुए डान थे। वे इस सम्मानपूर्ण विदाई से और ज्यादा उत्साहित होकर दुगुनी शक्ति से फोन पर फोन करने लगे। इतना ही नहीं उन्होंने अपने मित्र डाक्टर संजय वर्मा से भी अपनी खूबियों की  बाबत भी निरंतर फोन करवाये। खूबियां बताते हुए एक दिन डाक्टर संजय वर्मा स्वयं यह बता गये कि डाक्टर डी0एम0 वर्मा शोध कार्यो पर हस्ताक्षर मात्र करते हैं तथा उसके लिए अच्छी खासी फिरौती की राशि की तरह, पर्याप्त धनराशि वसूलते हैं। उनकी इस कलाकारी से आप भी आगे लाभान्वित हो सकते हैं। डाक्टर संजय वर्मा ने  हमें गंभीर सलाह दी। एक अन्य सिफारिशी फोन से हमें ज्ञात हुआ कि डाक्टर साहब दाखिले के रैकेट से भी जुड़े हुए हैं तथा पिछले दरवाजे से घटी दरों पर दाखिले कराने में भी सक्षम हैं।

 

 

हार थककर हम भी अपनी लाभ-हानि ढूंढ़ने लगे क्योंकि ना-नुकर करने का मतलब है कि इतने सारे शक्तिशाली लोगों के बुरे बनना तथा शत्रुता मोल लेकर, अपने भविष्य की सुरक्षा के लिए एक खतरा मोल लेने के बराबर है। सोचा कि जब सारा देश जाति के आधार पर चल रहा है दाखिले, नौकरी, प्रमोशन, चुनाव, टैण्डर,  लोन, वजीफा, जनगणना, आयोग, सैलेक्शन कमेटी, राजनैतिक दल आदि सभी जातिगत आधार पर ही कार्य कर रहे हैं तो हम भी क्यों न अपने-अपने वर्मा बन्धुओं के लिए कुछ करें चाहे वे अयोग्य ही क्यों न हों?

 

दूसरा यह सोचना कि डाक्टर डी0एम0 वर्मा, शोध के खेल के पहुंचे हुऐ खिलाड़ी हैं तथा उनकी पुत्री टापर है, दामाद जज हैं, पहंुच इतनी अधिक ऊँची है कि एम0ए0 पास को ही स्थायी रूप से प्रवक्ता बनवाकर त्याग पत्र भी दिलवा दिया। हम तो क्या उनके जज दामाद भी उनकी इस कला से बहुत अधिक प्रभावित थे तथा दर्जनों बार उनके इस सलेक्शन एवं त्याग पत्र के खेल का प्रसारण कर चुके थे। इससे हमने भी सोचा कि बिना कुछ किये  डाक्टर अल्पना वर्मा का भी शोध में खाता खुल जायेगा तथा उनके नाम से भ एक पी0एच0डी0 छप जायेगी। इतना सब होने के बाद मेरी धर्मपत्नी डाक्टर अल्पना वर्मा, डाक्टर डी0एस0 वर्मा की पुत्री श्रीमति पंगु वर्मा की पी0एच0डी0 डिग्री हेतु गाइड बनने के लिए हामी भर दी।

 

हाँ कहते ही डाक्टर साहब के शरीर में बिजली की लहर सी दौड़ गई। अगले ही दिन डाक्टर डी0एस0 वर्मा साहब की पुत्री श्रीमती पंगु वर्मा अपने जज पति श्री के0पी0 वर्मा के साथ आई। जज साहब पचास वर्ष के आसपास के सामान्य व्यक्ति लग रहे थे परन्तु उनकी पत्नी पूर्णरूप् से जज साहिबा लग रही थी। हमारे देश मेंं यह प्रथा सैकड़ों वर्षो से चलती आ रही है कि पति का ओहदा उसकी पत्नी को बगैर कुछ किये अपने आप ही मिल जाता है। यह प्रथा मुगल काल में काफी प्रचलित रही। अंग्रेजों के शासन में भी इसी नारी सशक्तिकरण को अपनाया गया तथा स्वतँत्र भारत में भी भारतीय नौकरशाही ने इसी परम्परा का अनुसरण किया परन्तु स्वतँत्र भारत में इस परम्परा ने एक शक्ति का रूप ले लिया तथा नारी अपने पति  के ओहदे से भी ज्यादा सबल होकर भारतीय नौकरशाही के सशक्त स्तम्भ के रूप में उभरकर सामने आई। श्रीमति पंगु वर्मा नारी सशक्तिकरण का यही उदाहरण था।

 

जज साहिबा दूरदर्शन की प्रसिद्ध हास्य कलाकार कु0 भारती की बड़ी बहन लग रही थी। पढ़ाई-लिखाई से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था सिर्फ पिता तथा पति के उछाड़-पछाड़ के खेल में महारथ ने उनको एक अत्यन्त खाती-पीती सशक्त नारी बना था तथा साकार नारी सशक्तिकरण की एक जीती-जागती मिसाल बन गई थी।

कहानी  सुनाते-सुनाते वर्मा साहब यानि पतिदेव कुछ थक गये थे तथा अपने उत्पीड़न को याद करके तनावपूर्ण हो जाते थे।

 

आराम के लिए तथा ध्यान बंटाने के लिए मैंने तीन चाय का आर्डर किया। चाय पीने के पश्चात वर्मा साहब ने आप बीती कहानी फिर से सुनानी आरम्भ की।

 

 

हामी भरते ही पिता-पुत्री की इस जोड़ी ने तेज रफ्तार से इधर-उधर से सामग्री उठानी प्रारम्भ कर दी कि कहीं यह फंसी चिडि़या हाथ से न चली जाये। दो दिन बाद शोध कार्य की रूपरेखा तैयार होकर सामने आ गई। जब धर्मपत्नी ने कुछ अपने सुझाव एवं संशोधन दिये तो श्रीमति पंगु वर्मा का बेवाक जवाब था कि पापा इस  मामले में तेज गति से कार्य कर रहे है, आपको चिन्ता की कोई आवश्यकता ही नहीं हैं। इंदिरा गांधी एवं पं0-नेहरू की पिता-पुत्री की जोड़ी के बाद शायद वर्मा परिवार की यह पिता-पुत्री की जोड़ी भारत के पिता पुत्रियों की जोड़ी में शायद दूसरी जोड़ी रही होगी जो विद्वता के मामले में अमरत्व प्राप्ति की ओर अग्रसर थी। वर्मा परिवार की विद्वान पिता-पुत्री की इस जोड़ी को सम्मान देते हुए धर्मपत्नी डा0 अल्पना वर्मा ने रूपरेखा को अपने किसी सुझाव एवं संशोधन के समाहित हुए बिना ही शोध विकास समिति में रखने की उनकी बात पर अपनी स्वीकृति दे दी।

 

निर्धारित तिथि को शोध विकास समिति की मीटिंग में, जिसमें धर्मपत्नी स्वयं भी एक सदस्या थी, जब श्रीमति पंगु वर्मा की उपस्थिति हुई तो उस शोध रूप रेखा पर साक्षात्कार मेंं उनका प्रदर्शन एकदम निराशाजनक रहा तथा भाषा में भारी खामियां पाई गई। रूपरेखा में शायद ही कोई वाक्य सही लिखा होगा जिस कारण् शोध रूपरेखा अस्वीकार कर दिया कर दिया गया।

 

इस अस्वीकार्यता पर धर्मपत्नी काफी विचलित रहीं । अंग्रेजी भाषा तो ऐसी जैसे कि वह इंग्लिश न होकर कोई नई भाषा हिंगलिश हो गई हो। इस असफलता के बाद भी पिता-पुत्री के दम्भ मेंं कोई कमी नहीं आई। यह रूपरेखा कहीं से उड़ाई गई लग रही थी परन्तु वह भी एकदम गलत।

 

इस नाकामयाबी के बाद पिता-पुत्री की नकारा जोड़ी को समझने में डा0 अल्पना वर्मा एकदम असफल रहीं। बड़ी ही मुश्किल से गाइड महोदया ने उनकी गड़बड़ झाला प्रारूप को ठीकठाक किया तथा फिर जोड़-तोड़ के माहिर खिलाड़ी डा0 डी0एस0 वर्मा ने अपनी पुत्री के शोध के प्रारूप को पास भी करवा लिया।

 

इसके बाद श्रीमति पंगु वर्मा ने एक-दो बार गाइड के घर को अपने कदमों से अनुग्रहित किया। पढ़ाई-लिखाई से उनका दूर-दूर का वास्ता नही रहा। काला अक्षर भैंस बराबर की तरह उपाधि पर उपाधि इकट्ठी करे जा रही थी। जज साहब एवं डाक्टर साहब डींग मारने में इतने आगे बढ़े हुए थे कि शायद डींग भी स्वयं अपने आप में  लज्जित र्हो जाये। इस अयोग्य पुत्री का स्थायी प्रवक्ता के पद से त्याग पत्र दिलवाना, जज साहब द्वारा न्यायिक परीक्षा पास करना, डाक्टर साहब का शोध मेंं अर्धशतक, शोध पत्रांे में शतक आदि-आदि, एक चालू पांचों वक्त के नमाजी मुल्ला की तरह हर बार सुनने को मिलता था। इतना ही नहीं जज साहब का अपने सम्बन्धों के बल  पर यह भी दावा था कि वह अपनी पत्नी श्रीमति पंगु वर्मा को भी हर हाल में जज बनवा देंगे। इसके लिए उन्होंने अपनी पत्नी का कहीं बार में न्यूनतम अर्हता पूरी करने के लिए औपचारिकता के लिए पंजीकरण भी करवा रखा था।

 

अब तक हमें यह ज्ञान अवश्य हो गया था कि डाक्टर डी0एस0 वर्मा एक झोलाछाप फर्जी डाक्टर थे। पढ़ाई-लिखाई से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था। हमारे आवास के दो-तीन चक्कर लगाने के बाद पुत्री तो इस शोध के फर्जीवाडे़ से एकदम गायब हो गई। अपने महाविद्यालय की कभी भी उन्होंने शक्ल ही नहीं देखी पर उनके  शोध घौटालों के खूसट पिता एवं पति गाइड महोदय के पास कहीं से अध्याय के बाद अध्याय उड़ाकर लाते रहे जिनका असली विषय से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। दोनों का शातिर दिमाग गाइड को बहकाने एवं डराने मेंं ही लगा रहा। धर्मपत्नी गाइड उनसे बहकती रहीं और डरती रही। इस शोध कार्य की सबसे बड़ी काली  सच्चाई यह थी कि शोधार्थी ने कोई सर्वे कार्य नहीं किया जबकि आठ सौ लोगों पर सर्वे करना था। सारे फर्जी आंकड़े शोध ग्रन्थ के लिए चुराये गये थे। शोध ग्रन्थ का इतनी बड़ा फर्जीवाड़ा देखकर हम दंग रह गये। यह सपनों में भी नहीं सोचा कि इस देश में ऐसा भी फर्जीवाड़ा होता है। एक के बाद एक फर्जी अध्यायों पर पिता-पुत्री-पति के तिकड़ी डरा-धमकाकर तथा दबाव डालकर हस्ताक्षर कराती रही।

 

एक दिन यह तिकड़ी पूरे बाहुबल के साथ एकदम नये बंधे-बंधाये शोध ग्रन्थ की पांच कापियों के साथ आ धमके। फर्जी-नकल के इस शोध ग्रन्थ को लेकर इस तिकड़ी ने अन्य दो लोगों के साथ आकर हम दोनों को एक तरह से बंधक बना लिया। उस दिन जबरदस्ती हस्ताक्षर करवाने के लिए तीनों ने अभद्रता की सारी हदें  पारकर दीं। धमकाना, गाली गलौज, झूठे केसों में फंसाने की धमकी, पिटाई की धमकी आदि-आदि। हम दोनों उनसे इतने भयभीत हो गये कि धर्मपत्नी ने हस्ताक्षर करने में ही अपनी भलाई समझी।

 

इतना कहकर वर्मा दंपत्ति के चेहरे पर पसीना झलक आया। उस दिन को याद करके दोनों के चेहरे पर आज भी घबराहट देखी जा सकती है।

 

इस धींगामुश्ती के बाद यह तिकड़ी कुछ दिन चुपचाप रही परन्तु कुछ दिन बाद इस तिकड़ी ने फिर अपने हट्टे-कट्टे साथियों के साथ हमारे गरीबखाने के चक्कर काटने प्रारम्भ कर दिये। उनके दम खम से ऐसा लगता था कि जैसे हमारे गरीबखाने के, उनके  भय के कारण खिड़की दरवाजे हिलने लगते हों। हमें वहां से घर छोड़कर भागना पड़े। अब वह डाक्टर अल्पना वर्मा पर दबाव डाल रहे थे कि शोध ग्रन्थ जमा होने से पूर्व होने वाले ’प्रि सबमिशन सेमिनार’ को बिना कराये ही उसका प्रमाण पत्र दे दें। उनकी धमकियों ओैर दबाव के चलते अनेक बार हमे घर के अन्दर ही छिपना पड़ जाता था। धमकीभरे फोन आना तो एक आम बात हो गई थी।

 

विश्व विद्यालय के उप-कुलपति प्रोफेसर कुनेजा, डीन प्रोफेसर मक्कार वाल, उप डीन प्रोफेसर दुर्जना वर्मा आदि के दबाव भरे फोन आना आम बात हो गई थी। इसके साथ ही साथ झूठे एवं मनगढ़ंत आरोपों का भी दौर प्रारम्भ हो चुका था। अंधेर नगरी चौपट राज। चोर का साथी चोर। इस चोर तिकड़ी को विश्वविद्यालय प्रशासन से भरपूर सहयोग की प्राप्ति हो रही थी।

 

शोध छात्रा पंगु वर्मा ने शोषण के इतने आरोपों का घड़ा फोड़ना प्रारम्भ किया कि शायद कार्ल माक्‍र्स भी अपने कब्र में लेटा उठ बैठे। यहां तक कि आधी रात के आसपास जज साहब भी महिला कालेज के चककर लगाते थे तथा झूठी सच्ची शिकायतें प्राचार्या से जाकर किया करते थे।  अन्त में इस फर्जी शोध कार्य का जमापूर्व सेमिनार कराने के लिए प्राचार्या एवं गाइड पर दबावभरे फोन विश्वविद्यालय से आने लगे। विश्वविद्यालय का एक पत्र तो खुले लिफाफे में जज साहब स्वयं लेकर गाइड महोदय के घर आये। इस सम्पूर्ण नाटक से विश्वविद्यालय भी काफी प्रभावित हुआ तथा उप- कुलपति प्रोफेसर कुनेजा, डीन प्रोफेसर मक्कारवाल, उप डीन प्रोफेसर  दुर्जना वर्मा सभी ने मिलकर प्रि-सबमिशन सेमिनार की औपचारिकताएं पूर्ण करवा दी। इसमेंं श्रीमति पंगु वर्मा ने टूटी-फूटी अंग्रेजी में दो-चार पृष्ठ पढ़ दिये। इससे इतिश्री हो गई। जब कोई भी प्रश्न पूछता तो  प्रोफेसर मक्कारवाल एवं सहायक डीन प्रोफेसर  दुर्जना वर्मा एकदम उग्र होकर हमला कर देते। इस फर्जी वाड़े का  कोई भी प्रमाण न रहे इस कारण कोई सीडी अथवा रिकार्डिग भी नहीं की गई।

 

इतना ही नहीं जब फाइनल रिपोर्ट लिखी जा रही थी तो श्रीमति पंगु वर्मा के जज पति एवं झोलाछाप डाक्टर पिता डीन के साथ में बैठे हुए थे। इस फर्जी वाडे़ के बाद कब और कैसे शोध गं्रथ जमा हो गया गाइड महोदय को कुछ भी आभास नहीं हुआ। श्रीमति पंगु वर्मा के शोध गं्रथ जमा होने का पता जब चला जब फिर से

सहायक डीन प्रोफेसर दुर्जना वर्मा ने मनपसंद परीक्षकों के नाम भेजने के लिए दबाव बनाने का फिर से एक नया ड्रामा प्रारंभ कर दिया। धर्मपत्नी फिर सकते में थी कि उनके हस्ताक्षर के बिना ही वह ग्रंथ भी जमा हो गया। शायद उनके किसी पुराने हस्ताक्षर के साथ छेड़छाड़ करके जमा करने में उपयोग कर लिया गया होगा।

 

इतनी बड़ी कहानी सुनाकर वर्मा साहब ने फिर से लंबी सांस ली और बोले कि अंधेर नगरी चोैपट राज विश्वविद्यालय की महान दास्तान। कुछ देर रूककर वर्मा साहब ने फिर से बोलना प्रारम्भ किया।

 

इस तिकड़ी के संबंधों के जाल का यह हाल था कि घर बैठे ही श्रीमति पंगु वर्मा को विश्वविद्यालय एवं देश के कौने-कौने से सेमिनार/कांफे्रस में शोध पत्र प्रस्तुत करने के प्रमाण पत्रों की लाइन लगा दी। दर्जनों प्रमाण पत्र उनकी फाइल में भरे रहते थे। रिसर्च जनरल भी ऐसे थे कि शायद ही किसी ने उनका नाम ही सुना  हो। यहां तक कि प्रमाण पत्रों की भाषा भी एकदम अशुद्ध होती थी। एक बार इसी तरह का एक शोध पत्र पढ़ने का दु-अवसर प्राप्त हुआ पत्र पढ़ने उपरांत पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गयी। इस शतकवीर पिता तथा टापर बेटी का शायद ही कोई वाक्य सही होगा। इस प्रकार यह लगने लगा कि पिता तोे शायद शतक ही लगा पाये  परन्तु उनकी टापर पुत्री सचिन तेंदुलकर के शतकों का भी रिकार्ड तोड़ डाले। इस देश में सभी कुछ धन्य है। धन्य हो शिक्षक पिता जो अपनी पुत्री को चोरी सिखा रहा है। धन्य हो जज पति जो अपनी पत्नी के फर्जी शोध ग्रंथ में कन्धे से कन्धा मिलाकर भाग दौड़ रहा है। सौ में नियानवे बेईमान फिर भी मेरा भारतशायद इस परिवार ने चोरी का डी0एन0ए0 मंगवाकर अपने अन्दर चढ़वा रखा हो। एक ईमानदार सभ्य शिक्षिका की मदद करने वाला विश्वविद्यालय में अन्य कोई नहीं मिला अपितु इस बेईमान टिकड़ी की पूरा विश्वविद्यालय मदद कर रहा था।

 

शोध ग्रंथ जमा होने के चार-पांच दिन बाद एक दिन डाक्टर डी0एस0 वर्मा फिर से आ टपके। उन्हाेंंने विश्वविद्यालय का एक बड़ा सा लिफाफा सामने लाकर रख दिया जिस पर अति गोपनीय लिखा था परन्तु लिफाफा खुला हुआ था। खुले लिफाफे मेंं तीनों विशेषज्ञों की तीन रिपोर्ट रखी थी। मौखिक परीक्षक का नाम व पता एक अन्यफार्म पर लिखा हुआ था। हम दोनों फिर सकते में थे कि ये क्या हो रहा है? अति गोपनीय नाम व रिपोर्ट खुले लिफाफे मे घूम रही है। परीक्षक का नाम शोधार्थी के पिता लेकर घूम रहे थे। ये सभी पत्र एवं पेपर उनके पास किस प्रकार पहुंच गये? इतने बड़े शिक्षा के महाबली डान को देखकर डाक्टर अल्पना वर्मा कुछ भी  बोल नहीं पा रही थीं तथा वे एकदम हक्की -बक्की रह गई।

 

चार पांच दिनों में तीन-तीन रिपोर्ट कैसे आई? चार-पांच दिनों में तो इस देश में कहीं डाक भी नहीं पहुंचती। तीनों रिपोर्ट पढ़ने उपरान्त ऐसा लग रहा था कि जैसे डा0 डी0एस0 वर्मा ने तीनों रिपोर्ट स्वयं अपने आप से लिखकर विश्वविद्यालय में जमा कर दी।

 

डाक्टर डी0 एस0 वर्मा की खानदानी शक्ति को सलाम करते हुए डाक्टर अल्पना वर्मा ने मौखिक परीक्षक को छ: पत्र लिखे। वहां से कोई भी जवाब नहीं आया। शायद नाम-पता ही फर्जी हो। फिर विश्वविद्यालय को भी अनेक पत्र लिखे गये परन्तु इस बार सुपरफास्ट विश्वविद्यालय से कभी कोई जवाब नहीं आया। फिर एक दिन डाक्टर डी0एस0 वर्मा स्वयं आ धमके। इस बार एक फार्म पर उन्होंने मौखिक परीक्षा के परीक्षक के हस्ताक्षर करवा रखे थे तथा डाक्टर अल्पना वर्मा से भी बिना मोैखिक परीक्षा के हस्ताक्षर करवाने के लिए दबाव डालने आ धमके परन्तु इस बार धर्म पत्नी ने अपना साहस दिखाया तथा उनके सब्र का सेतु टूट गया। उनके फर्जीवाड़े को लेकर उनको खूब

खरी खौटी सुनाई। इस बार वह तिकड़ी भागती नजर आई।

 

परन्तु कुछ समय बाद हमारी धर्म पत्नी को विश्वविद्यालय किसी कार्य से जाना पड़ा। वहां जाकर पता चला कि मौखिक परीक्षा पर डीन प्रोफेसर मक्कारवाला ने गाइड को अनुपस्थित दिखाते हुए मोैखिक परीक्षा के प्रपत्र पर हस्ताक्षर करके श्रीमति पंगु वर्मा को डाक्टरेट भी दिलवा दी। ईमानदार सभ्य लोगों के ग्रंथ दो-दो वर्षो से

जमा हैं उनकी सुध लेने वाला कोई भी नहीं है परन्तु इस नटवर लाल की पीएच0डी0 पन्द्रह दिवसों मेंं ही एवार्ड हो गई।

 

अब बजने वाली फोन की हर बजने वाली घंटी से यह इंतजार रहता है कि अब किसी दिन डाक्टर पंगु वर्मा जज अथवा महाविद्यालय में स्थायी प्रवक्ता बनने की अशुभ सूचना दें। कब प्रोफेसर डाक्टर मक्कारवाल एवं डाक्टर प्रोफेसर दुर्जना वर्मा कहीं उप-कुलपति बनें। अचानक कालेज मे लड़्कियॉ मे एक खबर आग की तरह फैली कि MkDVj iaxq oekZ प्राचीन पवित्र नगरी मे एक स्वायक्त् शासी egkfo|ky; esa LFkk;h izoDrk हो गयी हैं।

 

इतनी कहानी सुनकर वर्मा दंपत्ति कुछ समय तक आंख बंद करके बैठे रहे। कुछ समय बाद उनके चेहरे पर कुछ शांति दिखाई दी। इसके बाद वर्मा साहब ने पुन: बोलना प्रारम्भ कर दिया। पंगु वर्मा को पीएच0डी0 मिलने के बाद हमें भी मुक्ति मिल गई। अब इन चोरों के चोर बाजार से हमें भी छुट्टी मिल गई। शिक्षा एवं न्याय के कहानी खत्म होते ही हम तीनों अपनी -अपनी बर्थ पर जाकर सो गये। दिन निकलते ही ट्रेन हरिद्वार पहुंच गई। हरिद्वार पहुंचकर हम तीनों गंगा नदी के तट पर पहुंच गये। वर्मा दम्पत्ति ने वह लिफाफा नदी मेंं प्रवाह कर दिया तथा जब तक उसे देखते रहे जब तक कि वह लहरों में आंखों से पूरी तरह ओझल न हो जाये। इसके बाद  दोनों ने गंगा में स्नान किया तथा पड़ाव के अंतिम दौर में श्री हनुमान मंदिर मेंं पहुंचकर भगवान को दण्डवत प्रणाम किया जैसे गा रहे हों:-

 

भूत पिशाच निकट नहीं आवे/महावीर जब नाम सुनावे/

संकट ते हनुमान छुड़ावें, मन क्रम वचन ध्यान जो लावें।

 

 

(यह लघु कथा भ्रष्टाचार के ऊपर एक व्यंग्य मात्र है तथा स्थान, नाम, कहानी, सभी काल्पनिक हैं। किसी से किसी अंश की समानता मात्र संयोग होगा उसके लिए लेखक क्षमा प्रार्थी है तथा उसके लिए कोई उत्तरदायी नहीं है।)



Thursday, 20 August 2020

A world of Godmen lovers

Why does the world love Godmen? Looking for easy solutions to the intricacies of life, people are lured by the tricks used by crafty Godmen and God women. They claim to tell the true meaning and purpose of life.

 

Media, police and authorities expose very frequently the fake Godmen, it is shocking at the blind faith of the cohorts who cannot understand the wily tricks of the conman.

 

What pulls the followers of these dealers of faith? Why the distressed call for to believe that a man has a fast route to God and happiness? It is just like a peg of wine that diverts their strength. People are a victim of their weaknesses. People with firm faith in their inner self, values and actions do not need to transfer their self to another.

 

However, human beings have a deep innate desire to connect with someone or something. They also want to show their worth. All want to have a meaning and purpose of life. They crave to have a unique self and to prove their existence.

It is this anxious inner urge that is exploited by Babas, Matas, Pir Babas, Sufi Babas, Pastors, Gurus, and Mothers etc. Being part of a cult, dera, dargahs, Jamat, congregation etc. imparts a beguiling sense of meaning and hope to the confused and greedy masses. Connecting yourself with a cult gives you companionship and identity. They also cash on the ignorant and superstitions of the people and sell half-baked Gyan which helps to the hopes going high with a promise of heaven and salvation.

Now, these Godmen also act as a channel between politicians and authorities. Their followers use their network to get favours. In fact Babas, Matas, Pirs Baba, Pastor, Guru, Mothers etc. are strong links for networking like NGOs and civil society.

Religious conversion is also a big industry in India. Some of the Pir Babas, Pastor, and others etc. are also involved in this conversion business.

These Godmen have all the leadership qualities. They are good leaders, powerful orators and good at the tricks of fooling. They show love and concern, and help their needy followers and also fiddle in social work like NGOs. Politicians appease them of vote banks.

They grip the collective wisdom, psyche and show miracles and tidbits of optimism like Mother Teresa used to show. The ignorance of people attracts them to these illusionary God land. The Babas are intelligent enough to dupe and collectively hypnotise masses into flattering followers. The latest example is Maulana Saad and Zakir Naik.

People are without clear purpose and direction. They are always struggling seeking somebody to help. The godmen prove easy pegs like corrupt bureaucrats to drape our insecurities.

In this materialistic world, people are cut off from their near and dear ones. So, they get solace and comport in such congregations, satsangs and jamaats. That is the reason all look for someone beyond their circle. Unfortunately, their sentiments and fears are grabbed by con-gurus to fill their coffers. 

Well-known author Ron Hubbard once remarked jokingly,” If you want to make big money, you should start a religion.” A few years later Hubbard started a religion of his own ‘Church of Scientology’ which had nearly two lakh followers including big evangelists Tom Cruise and John Travolta. Hubbard became rich and influential and not to mention notorious.

This is almost true to all the Godmen. Some of them merely front men for the group that craftily operate them from behind. Zakir Naik is one such name. His model of business has evolved since those innocent days of the 1990s, maybe before when it was all just about minting a quick, easy buck. With money comes everything.

The tales of Indian godmen are all well known. Ron Hubbard is an apt lesson in the cult business. Hubbard grew up as a detractor of organised religion. He invented a philosophy called Dianetics. He encouraged people to understand the inner truth through their observations, rather than chase any God.

 

The philosophy was a shrewd mix of ancient Gnosticism and Buddhism, combined with Christianity, Freud, Taoism, and Nietzsche, added a dose of hypnosis of which Hubbard was an expert. His book on Dianetics was on the US bestseller lists for over a year. But then he ran into troubles that bankrupted him and he could not protect himself.

 

This Godman income is a hugely profitable industry but non-taxable like NGOs. Like Hubbard, Indian Godmen who organize religion to save taxes and gain other benefits. When his empire collapsed due to his involvement in criminal acts, no power could protect him. His church was levelled as “a business, often given to criminal acts, and sometimes masquerading as a religion." 

 

Towards the end of his life, Hubbard was in deep hiding, like Acharya Rajneesh and Zakir Naik, controlling his church by remote control and getting hundreds of millions of dollars a year. When he died in 1986, his church formally declares that "his body had become an impediment to his work and that he had decided to drop his body" to continue his research on another planet. It is a familiar-sounding story, people hear in India too. Ashutosh Maharaj story is like this.

 

The followers of Hubbard brilliantly made a film on him, The Master, starring Philip Seymour Hoffman, which narrowly missed winning the 2012 Venice Film Festival's Golden Lion award on minor technical grounds. The follower of Baba Ram Rahim Insaan also made a film, The Messenger.  Aasa Ram Bapu, Baba Ram Pal, Bishop Franco Mulakkal, Ashu Maharaj (real name Aasif Khan), Zakir Naik etc. are some defamed names in this business. 

Campuses-Now and then

 

Nearly 40-45 years back, sometimes students and teachers protested or went on strike. They were always afraid of police or authorities. Times have changed. A few months back, the nation saw a protest by a few hundred people at Shaheen Bagh near Jamia Milia University but police and the authorities were afraid to act.

Were they students or teachers? No, they were dons, most of them wearing designer and branded clothes and using expensive devices but enjoying highly subsidized education. They were demanding the withdrawal of CAA/NRC Acts, passed by the Parliament. Moreover, the highest court of the land also refused to stay the bill.

Placards, held high. Volatile slogans rose. Students forced to boycott the classes, and there were hardly any studies while their dharna (sit-in) was going on. This incident was enough to give a snapshot of the working of our universities over the past 40 fears. To a point unimaginable in the eighties, they become a safe citadel of Left-wingers, Islamists and other newly emerged caste extremist groups in the name of social justice.

This is a tremendous change. Nearly four decades back, less than 5 percent of school pass-out went to universities. Now, almost more than 50 percent of youth attend institutions of higher studies. So the cultural brainwashing is going on and there are noteworthy sequences for our society and nation.

The idea of growing higher education which was initiated by Late Mrs.Indira Gandhi and spread by Dr, Man Mohan Singh was a noble idea, offering opportunities to maximum citizens which had earlier been the monopoly of a few people.

Now, they are demanding every benefit without any merit. They are disgruntled with everything. This was not seen earlier that these fast-growing institutions are in the grip of Leftist dons, who lure the youth with unworkable ideas. Most of these ideologies are not teaching academics and of doubtful merit.

An insight into the nature of our activists turned academicians was provided by the letters and signature campaign by academics to the government and media. Most of the subjects and topics have neither to do anything with education nor with academics and universities. Even they defend the terrorists, rioters and hate elements.

These disgruntled signatories blame government, parliament, judiciary, media, police, authorities etc if they do not toe to their ideology. These zombies in India attack from cinema to the counterculture. Most of these set hands are always busy in pro and anti missive. Universities may not be specializing in Harry Potter courses, but the fact that there is a predominance of Left-wing idealogy at the campuses can’t be questioned.

The long list goes on. But hardly any of the signatories could be identified and described with their eminent academics or teaching works. And yet they draw fat salaries and grants only to work for their parties and play politics. Ironically, good numbers of them have their own NGOs and getting crores as grants only for disruptive and obstructive activities.  

Now such academics have thrived in lesser-known universities and colleges even in polytechnics. They are indoctrinating lakhs of students and large numbers of them pay sizable tuition fees. There is nearly 70 or 80 percent of humanities and language teachers are inclined to the Left ideology. The RTE and expansion of education have created a big Left-wing radical column that hates the values of those who develop the institutions and pay for their fat wages.

A number of central universities in Delhi and elsewhere are apt examples of this kind. On account of this unique ideology, it is regarded as a freak, indulges in a left politics and shunned by others. Most of the heads appointed there are certain to be a someone of the Left-wing. In fact, a non-left distinguished person, no longer become a head there easily. When a new perfect candidate of the non-Left family emerges is disregarded.

This is the way that more and more Left-wing dons choose ever more Left-wing college heads, and a self-sustaining ring is formed from which anybody with even a little non-Left-wing symptoms is debarred for the rest of time. This is not right. Our public-funded institutions should serve society and not the parties. Our universities are not financed by the Left-wingers, so why should they serve the Left-wing?

The nation needs McCarthyism type purification. Late Senator Joseph McCarthy started this purgation in America in the fifties. Presidents Harry S. Truman was also a strong supporter of this kind of movement. By misguiding Socio-Economically Disadvantaged Groups (SEDG), they extend their territories.

There must be a balance.  But now Marxist dons teach History, 20th-century novels and Shakespeare as well. Humanities need an exchange of ideas. But those are taught exclusively Left-wing prism, minds will be shrunken and intolerant. 

During anti-CAA/NRC disturbances, evidence for this can be found in the rising intolerance towards Right-wing or non-connected groups in our universities.  Others are subjected to unspeakable bullying. Even teachers are subjected to atrocious insults.

Academicians’ signature campaign or letter writing is just like funny Tik-Tok games. It is much more difficult to Right-wing teachers writing or restoring a signature campaign, though some teachers did recently circulate a pro-CAA/NRC letter. If you want peace, it's wise to keep silent and smile on everything lest it is blown off.

This silence has built up our universities a vast new army of Left-leaning academics — many of them not very brilliant or scholarly, intolerant of conflicting views of others. They claim to fight the ‘communal’ and ‘caste’ history and politics but they cash on this and sustain on the grants of the governments, annexed from the eye-watering public through taxes which citizens are now forced to pay.

What is the cure of this malaise? Students cannot speak because they are also prisoners of this ‘artificial intelligence.’ Political action may backfire. We must pray that our universities don't produce rioters and disruptionistss. This good-intentioned expansion of education has been ruined by the politicians and resulted in the formation of a big Left-wing column, found a new constituency in Muslims but indignantly oppose the values and idea of India who pay their fat salaries and lucrative grants.

A lot more need to be done in the New NEP

 

Although the New Education Policy 2020 (NEP) makes a lot of progressive changes it requires so many updates. The Union cabinet is acting very fast. Ram Temple Bhoomi pujan, the arrival of the first fleet of Rafale fighters and now NEP2020. The 1986 policy will be replaced by the NEP 2020 on that work was going on since 2016 after the T.S.R. Subramanian Committee submitted its report to the Union government.

In June 2017, the K.Kasturirangan committee was constituted by the government which submitted its Draft NEP in 2019. The main intention is to integrate the Indian education with the global system, reduced emphasis on 'rote-learning', emphasis on rationalisation and instil confidence with nationalism among learners. It has also recommended that the name of the ministry of human resource development will be the ministry of education.

The NEP 2020 stresses to increase the Gross Enrolment Ratio (GER) and will try to stop the drop-outs. It aims to bring two crore children to the schools. It recommends to develop infrastructure, create innovative teaching centres, appoint only trained teachers and counsellors, encourage open schools and adult literacy programmes.

10+2 system will be replaced by a 5+3+3+4 structure. The schooling will have 3 years pre-schooling for the children 3 to 8 years of age in Anganwadi centres. This will be followed by 12 years of schooling. Now, the government has extended its outreach to pre-schooling, including nursery education and kindergarten.

The NCERT will be the nodal body to frame a National Curricular and Pedagogical Framework for Early Childhood Care and Education (NCPFECCE) for children up to the age of eight.  The ministries of Education, Women and Child Development, Health and Family Welfare, and Tribal Affairs will be involved in this work.

The focus has been put on training children with "21st-century skills". There will be flexibility in choosing the subjects. Rigid separation between Arts and Sciences, curricular and extracurricular subjects or vocational and academic streams will be done away. There is another proposal to do away annual examinations and will be replaced by a modular form in Grades 3, 5, and 8, 10 and 12.

PARAKH (Performance Assessment, Review, and Analysis of Knowledge for Holistic Development), a new National Assessment Centre will be created to set standards of education. The NEP also includes setting up Special Education Zones to help socially and economically disadvantaged children and to set up the Gender Inclusion Fund. Now, in Mid-Day-Meal programme, breakfast will also be served in government schools to tackle child malnourishment.

A common National Professional Standards for Teachers (NPST) will be set up for the recruitment of teachers. A School Quality Assessment and Accreditation Framework (SQAAF) will also be created, according to the NEP 2020.

The biggest point is that that education up to Class 5, and if possible until Class 8, will be given in the mother tongues of students. Classical languages like Sanskrit, Pali, and Prakrit have also been proposed at all levels. The NEP says that "no language will be imposed on any student".

In the flexible curriculum, students have the choice to select through an interdisciplinary approach with multiple exit points in a four-year undergraduate programme. Proposed post-graduate will be of one-year duration. M.Phil programme has been scrapped. Multidisciplinary Education and Research Universities (MERUs) and a National Research Foundation will be set up, according to NEP. There will be the Higher Education Commission of India (HECI) and merging all other regulatory bodies like the University Grants Commission and the All India Council for Technical Education.

Boards of Governors will be appointed to oversee the day-to-day functioning of different universities. Graded autonomy will be given to the colleges. Emphasis has been given to digitalisation of higher education. An autonomous body, the National Educational Technology Forum (NETF), will also be set up to the use of technology in college education. The NEP 2020 says that the central and state governments will try to raise spending on the education sector to 6% of the GDP.

The NEP 2020 tries to de-bureaucratize education by giving governance powers to academicians. The policy recommends including more academicians in decision-making bodies. It recommends preparing a category of educational administrators among the teachers — the idea behind this move is to minimise the dependence on the administrative services.

In NEP almost education is forced upon children. Forced education is worst than child labour. So, there should not be a compulsory education. A week and non-serious students should be ousted from the system to give for space to meritorious students. If a student fails to secure a minimum of 36% marks in every paper should be ousted from the school. This will also reduce the overcrowding of campuses. Instead of quantity and numbers, attention should be on quality and merit. Un--academic and populist schemes like Mid-Day-Meal should be scrapped.

Post-graduate is a very important degree in India. One year post-graduate will lose its sheen. Post-graduate should have remained of two years duration. Similarly, M.Phil gives a comprehensive understanding of research. So, it should not have been scrapped.

Wednesday, 19 August 2020

Open schools in parts

 

After the lockdown phase, now Unlock India Phase is going on and being discussed widely. The government is very open to suggestion and adopting democratic ways. Human Resource Development Ministry, now renamed as Ministry of Education, has asked the state government and union territory authorities to take the suggestions and feedback from the parents about the opening of school and sending their children to schools.

After the feedback and suggestions, the MHRD will convey its opinion to the Ministry of Home Affairs (MHA) and the Ministry of Health and Family Welfare (MoHFW). Feedback, suggestion and discussion are very important and very necessary in a democracy. But too much emphasis on feedback, suggestions and discussion spoil the system. This is just the overdose of democracy and human rights.

Authorities can gradually open the school around Vijayadashami or Dussehra. Authorities should keep the size of classes small and ensure social distancing. For example, if there are 60 students in the class and school has five days a week. Then the class can be divided into five parts and every day only 12 students should be called for the classes. The school will be opened and this will also ensure social distancing. With the improvement in the situation, a student can be called twice a week. But for the Nursery and Primary students, there should not be any opening till December.

Online classes are not good for students. Teachers can only finish the syllabus only on paper. There will be no response from the learner. Students can wait for a few more months. Most of the students generally drop for years preparing for IITs, Medical or Civil Services etc. Already in the Unlock-3 guidelines announced on 29 July, MHA has ordered the educational institutions and coaching institutes to remain closed till 31 August 2020. This is a very good decision. Further guidelines are still awaited.

Vibhor Bhardwaj, father of a Prep student laments, "For we parents it's is a very difficult situation where we are the loser in all the ways. I can't send my son to school fearing the deadly virus. But at home, I have to pay full fees plus arrange another nurse to sit with my son for homeschooling and online classes as we both are working parents." Moreover, most of the parents do not have the necessary gadgets nor are our teachers exposed to this type of education. Since, the nation never experienced such a situation in the past, to equip with all the effective and easy methods to address such a situation would be a very tough challenge.

Although teachers and supporting staffs are losing their jobs, it is not advisable to the government to open the schools at least up to 5th standard until the situation becomes normal. Educational institutions should be the last priority to open because all the educational institutions are highly overcrowded due to RTE and almost no detention system. Schemes like Mid Day Meal should be completely scrapped which can spread the virus. Freebies should also be stopped because large numbers of students take admissions only to grab such freebies. This is also very necessary to reduce the number of students. We must protect the health and safety of kids because their immunity is very weak.

There are many unanswered questions and worries for the parents and the authorities. But all are united that schools should not be opened in the midst of the pandemic. Another worry is that still there is no treatment for the virus. Even if distancing is strictly maintained what about travelling, touching books and notebooks, shared study tables and chairs, shared water taps, toilets etc. it is impossible to clean and sensitize everything in the schools. In government schools, there is a tremendous shortage of help-staff. Moreover, children don't understand the seriousness of the situation, and they may not be regular in washing their hands and maintaining distancing. Education can be delayed but can't risk life for education.  Few months delays or a year's delay is not a big deal.

 

 

Tuesday, 4 August 2020

Link our rivers: India is heading for a grave floods and water crisis

India is a nation of rivers. All the ancient cities and ancient Indian civilization plus rich cultural heritage are linked with the rivers. All the great ancient Indian scriptures were also connected with rivers. Soor Das produced his immortal verses at the bank of river Yamuna at Mathura.  Goswami Tulsi Das created ageless "Ramcharitmanas" at the bank of river Sarayu at Ayodhya. Bhakti poet Kabir Das was born at the bank of holy Ganga. Maharshi Ved Vyas wrote the Vedas and the Gita at the bank of Saraswati River.

 

Similarly, all the ancient cities with the richest civilization of the world like Varanasi, Prayag Raj, Mathura, Haridwar, Ayodhya, Ujjain, Nasik, Patna etc are situated at the river banks. 

 

It is on the creative and mysterious banks of its holy rivers that India's civilization, creative geniuses and its and progressive cities surfaced and fostered. But now rivers are only known for the floods, disputes between states, encroachments and so many other negative issues. This year too Entire Assam, Bihar, Eastern UP and Maharashtra are also in the grip of devastating floods resulting in heavy loss of lives and property.

 

Aimless migration, huge population pressures and encroachments have led to over-exploitation of rivers and other water bodies have almost spoiled the rich legacy of our rivers. All the rivers, river beds, wetlands, natural water bodies and river catchment areas have been viciously invaded by the people. So, every year the nation faces devastating floods as there is no place left in the rivers to keep the rainwater.

 

In this field hardly any work is being done to control the recurring floods and droughts. No attention is given to the interlinking of rivers, construction of dams and check dams and rainwater harvesting system. There is no planning for these projects. They are willfully neglected. As a result of this most of the rivers are almost dead or flows only during rainy seasons. Dams and check dams hardly constructed or scene anywhere. Groundwater is almost finished or depleting very fast because there is no way to recharge the groundwater.

 

This is now unacceptable. India is heading towards serious water crises on the one hand and the second hand recurring of devastating floods every year. Now, the nation has to start working on remedial measures. There is a tremendous shortage of water for irrigation, drinking, industry and energy sector. Big cities, like Delhi, Mumbai, Chennai, Kolkata, Bangalore, Hyderabad etc have been facing a severe shortage of water. The same problem is there for agriculture. There is no water for Hydro Power projects in dams and check dams. 

 

Now, we must step up working of interlinking of all the rivers, construction of dams and check dams and installing the rainwater harvesting system. The governments should take the services of NHPC which has expertise in constructing dams, check dams and making canals and tunnels.  Encroachments from the river banks, river catchment areas, river beds, water bodies and wetlands should be made a non-bailable offence and such encroachments must be removed immediately.

 

This strain is very clearly visible of annual per-person water availability.  In 1951, this was 5177 cubic meters that declined in 2011 to 1545 cubic meters. This is much less than the international level for water stress level at 1700 cubic meters. However, according to the report by National Institute of Hydrology survey, per capita availability of water in India in 2010 is at just 938 cubic meters, and if positive steps are not taken, by 2025, this may drop to 814 cubic meters.  

 

Among the aptest solution to rejuvenate and protect the rivers is to interlink them so that the surplus water in one river can be transferred to another other. The work is very easy and effective. The governments should act fast so that it can save lives and properties. Already work is going on Ken-Betwa interlinking project. This will also recharge the groundwater and increase the green and the forest cover. Every state should start working on interlinking at-least two rivers. Every state should also construct at least one big dam each year.

 

Five kilometres wide belt along all the river banks should be reserved for planting fruits and native trees. There is a fund 'Compensatory Afforestation Fund Act may provide 6000 crores annually to state governments. A fund of Rs.42000 crores is lying unspent for many years. These funds can be used for the interlinking of rivers, construction of dams, check dams and forestation. These projects will protect the environment; provide employments to villagers and tribals. These methods will also control the pollution of rivers through the discharge of industrial effluents and city waste. The Centre's Namami Gange project is a very good programme.

Much onus is on state governments as water is a state subject. Act now or ready to face disaster. 

 

All these problems related to rivers and water is also directly related to the rising population. So governments should also start population control programmes urgently. A huge population is the biggest villain in the country and it is the mother of all the problems. So, populations control methods are also required urgently to light the dark tunnel ahead.

 

 

 


Love thy mother-tongue

This year results of UP Board were a shocker. Hindi answer sheets were a shocking eye-opener about the poor grip of students over their mother-tongue. They wrote Hindi words in English words in the Devanagari script. Apart from this, they were pierced with poor comprehension, wrong grammar and incorrect punctuation. Riddled with these nearly 8 lakh students failed in X and XII in Hindi although teachers are very liberal in marking nowadays.

Out of 28.75 lakh students, appeared for the Hindi and primary Hindi in X exams, 8.30 % failed in the exam. Similarly, out of 23.75 lakh students, appeared for XII exams, 11.3 or nearly 2.7 lakh failed in the mother-tongue exam, as per the data released by the board.

This is a regular occurrence. During the years, this number of failed student in Hindi has been increasing in the state which is the birthplace of Brij Bhasha, Khadi Boli, Bhojpuri, Awadhi, Bundelkhandi and birthplace of so many greatest poet and writers.

Frequent use of slangs, wrong Hindi, acronyms and jargon on social media is also responsible for this fall. Wrong English and wrong Hindi or 'Hinglish' has become very widespread among the new generation. So, Hindi grammar, spelling and other rules are not at all cared.

In the newly reformed system of education, too much emphasis is on English. States care for regional languages. Even Urdu has more supporters than Hindi. So in this deeper game, Hindi is the victim. Hindi is not an important language for competitions and job prospects. Even many students do not know the days of the week in Hindi. Hardly anybody knows the Hindi alphabets (varnamala). Students take tuitions of all the subjects and ignore Hindi. There are thousands of coaching institutes for English, Science, Computers and other competitive exams but none for the Hindi.

Teachers are also responsible for this decay in the mother tongue. They are incapable to teach the intricacies of the language. Merit is hardly considered while selecting teachers. Even teachers can be seen struggling with the grammar and spelling system of Hindi. They find it difficult to explain the poetry and drama to the students.

In the joint family system, grandparents and other extended family members used to teach, reading, writing, storytelling and educational games to the children and they were a part of the family environment. Children learnt several aspects of language reading and writing. Now, all the time modern parents are busy with the laptop and mobiles and they have no time for kids to teach.

There are thousands of English schools. There are thousands of schools of local languages. There are thousands of madrasas teaching Urdu. Unfortunately, there is hardly any school purely based on Hindi. On the contrary, there are many English schools those punish students if they speak Hindi.

For the good knowledge of Hindi, one must have adequate knowledge of Sanskrit. Unfortunately due to the apathy of the governments, Sanskrit is almost a dead language. Teachers, as well as students, should have good knowledge of Sanskrit too, for a good command over Hindi. Teachers should be appointed who have good command over Sanskrit for teaching Hindi. Use of Hindi dictionary and Hindi newspapers and magazines should be encouraged. With this dictations should be given in Hindi.

Authorities should also pay attention to quality education. In India, the emphasis is only on the number of students and not on the quality of the students. As a result of this almost one-fifth of the total population of the country is in the schools. Nearly 25 crores students are studying at schools. But quality education is nowhere to be seen.

Monitoring schools, appointments of meritorious teachers, compositions of classes, infrastructure, facilities to the teachers etc are ignored and neglected. Apart from this politicians and reformists impose their agenda on education. All these have harmed education and standard of schools.

Some un-academic work like Mid Day Meal, Census, survey, election duties, frequent transfer of the teachers etc is also responsible for the poor show by students. All such things should immediately be done away so that teachers can pay complete attention to students.

Since this is an age of internet and IT, the government should develop good and easy apps and fonts in Hindi and teachers should popularize those apps and fonts among the students. Hindi stories and games based on ancient Indian scriptures like the Gita, Ramayana, and Mahabharata etc should be made and they should be part of the syllabus. In admissions and competitive exams, additional marks should be given to those students and candidates who have Hindi and Sanskrit at the school level. Moreover, Hindi is not only a language but it is a strength of national integration and unity.


Open schools in parts

After the lockdown phase, now Unlock India Phase is going on and being discussed widely. The government is very open to suggestion and adopting democratic ways. Human Resource Development Ministry, now renamed as Ministry of Education has asked the state government and union territory authorities to take the suggestions and feedback from the parents about the opening of school and sending their children to schools.

After the feedback and suggestions, the MHRD will convey its opinion to the Ministry of Home Affairs (MHA) and the Ministry of Health and Family Welfare (MoHFW). Feedback, suggestion and discussion are very important and very necessary in a democracy. But too much emphasis on feedback, suggestions and discussion spoil the system. This is just the overdose of democracy and human rights.

Authorities can gradually open the school around Vijayadashami or Dussehra. Authorities should keep the size of classes small and ensure social distancing. For example, if there are 60 students in the class and school has five days a week. Then the class can be divided into five parts and every day only 12 students should be called for the classes. The school will be opened and this will also ensure social distancing. With the improvement in the situation, a student can be called twice a week. But for the Nursery and Primary students, there should not be any opening till December.

Online classes are not good for students. Teachers can only finish the syllabus only on paper. There will be no response from the learner. Students can wait for a few more months. Most of the students generally drop for years preparing for IITs, Medical or Civil Services etc. Already in the Unlock-3 guidelines announced on 29 July, MHA has ordered the educational institutions and coaching institutes to remain closed till 31 August 2020. This is a very good decision. Further guidelines are still awaited.

Vibhor Bhardwaj, father of a Prep student laments, "For we parents it's is a very difficult situation where we are the loser in all the ways. I can't send my son to school fearing the deadly virus. But at home, I have to pay full fees plus arrange another nurse to sit with my son for homeschooling and online classes as we both are working parents." Moreover, most of the parents do not have the necessary gadgets nor are our teachers exposed to this type of education. Since, the nation never experienced such a situation in the past, to equip with all the effective and easy methods to address such a situation would be a very tough challenge.

Although teachers and supporting staffs are losing their jobs, it is not advisable to the government to open the schools at least up to 5th standard until the situation becomes normal. Educational institutions should be the last priority to open because all the educational institutions are highly overcrowded due to RTE and almost no detention system. Schemes like Mid Day Meal should be completely scrapped which can spread the virus. Freebies should also be stopped because large numbers of students take admissions only to grab such freebies. This is also very necessary to reduce the number of students. We must protect the health and safety of kids because their immunity is very weak.

There are many unanswered questions and worries for the parents and the authorities. But all are united that schools should not be opened in the midst of the pandemic. Another worry is that still there is no treatment for the virus. Even if distancing is strictly maintained what about travelling, touching books and notebooks, shared study tables and chairs, shared water taps, toilets etc. it is impossible to clean and sensitize everything in the schools. In government schools, there is a tremendous shortage of help-staff. Moreover, children don't understand the seriousness of the situation, and they may not be regular in washing their hands and maintaining distancing. Education can be delayed but can't risk life for education.  Few months delays or a year's delay is not a big deal.

 


Convert disaster into opportunities

Students, teachers, labourers, guards etc. have found new jobs ever since the breakdown of the Covid-19. Ram Singh, a small farmer in Bulandshahr district's Halpura village, used to earn Rs. 250 a day as a guard at a construction site in Delhi. After the lockdown, his earnings have increased. Now, he is selling vegetables in the nearby towns earning more than enough to feed his six-member family. Now, he has no worries to pay for school fees as his children are studying in the village school. His daughter wants to be an engineer. In the government school, she can finish her schooling.

He is very happy to come back to his village after 10 years. His happiness is also shared by his new neighbour Anil Kumar, whose small tea shop was shut in the lockdown. In the village, he is very easily feeding his family of five and getting medicines from the local government dispensary. In a government school, he has no expense. Anil added.

A large number of people have come back to their native villages following work loses, closures of markets and business. This is a very positive trend. On the one hand, cities are decongested and on the other hand, there is no shortage of labourers in the rural areas.

Several small budget schools have shut down. This has given a new direction to the education sector. With no income, low budget schools where almost half of the school-going children study, either shut down or forced to shut in near future due to the shifting of people to villages and small towns, forcing teachers, office staff, helpers, drivers and others to shift to their native villages. This has resulted in the village kids in getting good tutors in the villages, that too on affordable rates.

India has around 4 lakh such private schools which cater to the needs of around 8 crore students. This problem is more serious in big cities where millions of migrant workers have gone back to their villages. The children, who were studying in these schools, have shifted to government schools in their villages and towns. This has generated new employment opportunities in villages and small towns.

In villages, rents are very low, electricity is the very cheap and now qualified staff is available at affordable salaries, so now it has become very easy to run schools in villages. Now, this business can be very easily shifted to villages and small cities. In cities, it was very difficult for the parents to pay fees as their income avenues were closed but in villages, they have found a new light at the end of the dark tunnel.

In big cities, these budget schools are for sale but there is hardly any buyer because now owners want to shift their business to villages and small cities. Now, even teachers, office staff, helpers etc have developed entrepreneurs skills. They have found employment and income in vegetable, fruits, dairy, milk, animal husbandry, agriculture, skilled work and grocery sector. Since they are very intelligent, they are very successful too in these ventures. Now, even teachers can be seen selling vegetables and fruits in societies. Ironically, they are doing good business.

Farmers, direct village to city buyer business is a new phenomenon due to this lockdown. Now, there is no shortage of educated people and young workers in villages, which in itself has brought big fortunes for farmers. This type of business has generated crores of rupees in some villages. This new trend of marketing has solved the problem of the shortage of vegetables and fruits in big cities. With the farmers, drivers, truck owners and hawkers have also found work at home itself.

Educated people returning to villages and small cities have brought with them experience, intellect and skills. With their help farmers and local people have started using the latest and updated techniques and methods; suddenly they have found new frontiers and opportunities, pushing their talents and produces in far and wide areas. Last few months were very difficult but they have taught them so many new ways to struggle and survive and live a much easier and happy life than the cities they left behind with sad memories.

It was seen that system has completely collapsed in the big cities like Delhi, Mumbai, Chennai, Kolkata etc. They even failed to provide meals, medicines and water to the people. So the governments should develop villages and small cities.  The governments should open schools, colleges, hospitals, banks, post offices, ration shops, fair price shops and agriculture-based industries in villages and small cities and give employment to local people. This will reduce the pressure on cities. Social benefit schemes like 'old-age pension scheme' etc should be implemented in the villages.