दिल्ली की चिलचिलाती गर्मी, अराजक माहौल, नित्य घौटालों एवं भ्रष्टाचार के समाचारों से तंग आकर मन को कहीं दूर ठंडक मैं जाकर, शान्ति देने की कामना, से वशीभूत होकर, मैं अपने आप ही हरिद्वार चल पड़ा। संध्या समय मैंने पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से हरिद्वार पैसेंजर गाड़ी पकड़ी।
पैसेंजर गाड़ी के अनेक लाभ होते हैं। पहला सीट आराम से मिल जाती है। असली भूखे, नंगे, चोर भारत के मुफ्त में दर्शन हो जाते हैं। साइकिल की गति से चलने के कारण सामान्य ज्ञान, भूगोल, इतिहास, अपने आप अच्छा होता जाता है आदि-आदि। इसी लालच के कारण मैं पैसेंजर गाड़ी से चलता हूं क्योंकि हमारे जैसे हल्की जेब वालों की जेब भी ज्यादा हल्की नहीं होती है। हर वैरायटी के लोगों से आमना-सामना होता है।
टे्रन कुछ ही दूर चली होगी परन्तु संध्या से रात्रि हो गयी यद्यपि इसी बीच मैंने टे्रन में कई घण्टे बिताये। रात्रि के थोड़े से अंधेरे में कहीं-कहीं बल्व भी टिमटिमाने लगे थे। कहीं-कहीं बल्वों के टिमटिमाने से लग रहा था कि देश में अभी भी बिजली, घर-घर सिर्फ फाइलों में ही पहुंची है।
वाइल्ड वैस्ट के डर के कारण मैं अपनी सीट पर चुपचाप बैठा था। मेरठ से पहले तक देैनिक यात्रियों के कारण, यात्री उतरते ज्यादा थे, चढ़ते कम थे। आती-जाती लड़कियों, महिलाओं पर सीटी बजाना, फिकरे कसना यहां एक राष्ट्रीय पर्व के समान है। सभी देखते हैं, ज्यादातर करते हैं। शायद थकान और तनाव दूर करने का कोई मुक्त का लुकमान हकीम का नुस्खा हो। यहां तक कि पुलिस के जवान भी सुनकर अनसुना करते हैं। शायद पुरूषों का यह मानव अधिकार है और महिलाओं के नारित्व का अभिन्न हिस्सा है।
मेरठ के पास के किसी स्टेशन से अधेड़ उम्र का एक जोड़ा ट्रेन में चढ़ा, दोनों के चेहरे मुरझाये हुये थे तथा शरीर सूख कर ढ़ांचे के समान ही रह गया था जैसे मक्का के खेत में परिन्दों को उड़ाने के लिए डण्डों पर कपड़े टांग रखे हों। अपने थैले आदि को संभालकर रखने के बाद चेहरों पर कुछ शांत भाव आये जैसे किसी गंभीर सुनामी से बचकर सकुशल निकल आये हों।
एक पोलीथिन के थैले में कुछ राख तथा फटे कागज देखकर बहुत अजीब लगा कि ये क्या ले जा रहे हैं? क्यों ले जा रहे हैं? कहां ले जा रहे हैं? मेरे मन में पोलीथिन के थैले का रहस्य जानने की जिज्ञासा बेकाबू होती जा रही थी तथा मैं अपने को रोकने में एकदम असमर्थ पा रहा था। अन्त में मेरे अंदर की जिज्ञासा ने मेरे धैर्य और झिझक को पीछे छोड़ दिया और मैंने बिना किसी परिचय एवं झिझक के एक द्रोण प्रक्षेपात्र की तरह अपने प्रश्न का गोला फोड़ दिया।
भाई साहब इस पोलीथिन के थैले में क्या ले जा रहे हैं? मेरे इस प्रश्न को सुनकर दोनों ने चौंककर एक लम्बी दर्दभरी साँस ली। इसके बाद महिला ने प्रश्नभरी आंखों से अपने पति की ओर देखा। जैसे वह कह रही हो आप ही कहानी के वाचक बन जायें।
पति देव ने फिर एक लम्बी साँस ली तथा जिस तरह बेताल पेड़ से उतरकर कहानी सुनने के लिए राजा विक्रमादित्य के कंधे पर लटक जाता है ठीक उसी तरह मैं भी उचककर उसकी बगल में जा बैठा।
एक थके हारे यात्री की तरह वर्मा साहब यानि कि पतिदेव ने आप बीती कहानी सुनानी प्रारम्भ की। वर्मा साहब पेशे से शिक्षक थे तथा उनकी पत्नी श्रीमति अल्पना वर्मा भी कहीं शिक्षक थी। दोनों गंगा-यमुना के दोआब के क्षेत्र में अंधेर नगरी चौपट राज्य विश्वविद्यालय से सम्बन्धित महाविद्यालयों में शिक्षक थे। दोआब का क्षेत्र पहले किसान, जवान, दूध के लिए सुप्रसिद्ध था परन्तु आधुनिक ग्लोबल एवं सैकुलर भारत में यह क्षेत्र अपराध, अपहरण, पशु वध , भूमाफिया, शिक्षा माफिया आदि काले धंधों के लिए कुख्यात हो गया है। ऐसे ही शोध माफिया के चंगुल से सकुशल बचने की खुशी में ये दंपत्ति तीर्थ यात्रा पर जा रहा था।
वर्मा साहब ने आगे बोलना प्रारम्भ किया-
मई माह का समय था। चारों तरफ तमतमाती धूप की गर्मी से धरती बुरी तरह से झुलस रही थी। गर्मी को भगाने के लिए मैं अपनी पत्नी अल्पना वर्मा के साथ ठंडी-ठंडी नींबू की शिकंजी का मजा ले रहा था कि अचानक मोबाइल फोन की घंटी बजी। मोबाइल के बजने के साथ हमारे दिलों की धड़कनें और बढ़ जाती है क्योंकि हम जैसे सीधे-साधे शिक्षकों के मोबाइल बजने का अर्थ होता है कि कोई उनके उत्पीड़न एवं शोषण का षडयंत्र कर रहा है। नेता, अधिकारी, व्यापारी एवं शिक्षा माफिया तो मोबाइल के बजते ही दीपावली की लक्ष्मी माता के स्वागत के लिए, उसको सुनने के लिए लपकते हैं परन्तु हम लोग एक अनचाहे खतरे की आशंका से, कंपकपाते हाथों से उसका रिसिविंग बटन दबाते हैं। मई-जून माह में शिक्षा माफिया वैसे भी ज्यादा ही सक्रिय हो जाते हैं।
फोन रिसिव करने पर उधर से मेरे चार दशक पुराने मित्र डाक्टर संजय वर्मा की आवाज आई। आवाज पहचान होने पर कुछ सांस में सांस आई। कुशल क्षेम के आदान-प्रदान के बाद काम की बात प्रारम्भ हुई। डाक्टर संजय वर्मा स्वयं एक वरिष्ठ रीडर हैं। उन्होंने बताया कि उनके एक अत्यन्त पुराने परिचित हैं जो अत्यन्त प्रतिश्षि्ठित शिक्षाविद हैं। वर्तमान में शिक्षाविद की उपस्थिति, सहसा कानों पर विश्वास नहीं हुआ क्योंकि आज यह एक दुलर्भ प्रजाति हो गई है क्योंकि अब शिक्षा माफिया और शिक्षा के दलाल बहुतायात मेंं मिलने वाले प्राणी हैं। अंधेरनगरी चौपट राज्य विश्वविद्यालय तो ऐसे दलालों के लिए एकदम कुख्यात है जहां वे भरे पड़े हैं। उत्तर-भारत से ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत से भी डा0 राधाकृष्णन, प्रोफेसर कोठारी, प्रोफेसर झा, प्रोफेसर देव, प्रोफेसर फिराक आदि के साथ ही यह प्रजाति लुप्त होकर दुलर्भ प्रजाति बन गई।
खैर वास्तविकता जो भी रही हो डाक्टर संजय वर्मा के मित्र डाक्टर डी0एस0 वर्मा किसी महाविद्यालय में विज्ञान के रिटायर्ड रीडर थे जो कि बातचीत में शिक्षा के रीडर कम, बिजली के मीटर रीडर ज्यादा लग रहे थे। डींग मारने मेंं उनका कोई जवाब न था। आते ही हमें ज्ञान हो गया कि वो पी0एच0डी0 छापने में अर्धशतक बना चुके हैं तथा रिसर्च पेपर छापने में शतक बना चुके हैं। उनके लिए छापना इसलिए उचित है क्योंकि इतनी बड़ी संख्या में शोध कराना तथा शोध पत्र लिखना एकदम असंभव है कोई सिर्फ चोरी, फर्जीवाड़ा करके ही संख्या इतनी कर सकता है।
उनके इस प्रताप को देखकर हम उनसे मिलने में घबरा रहे थे तथा उनके अनेक आग्रहों पर हम उनसे मना ही करते रहे तथा मेरी धर्मपत्नी ने तो एकदम मना ही कर दिया क्योंकि आज के पी0एच0डी0 में अर्धशतक एवं शोध पत्रों में शतक वीराें से मिलना किसी अंडरवल्र्ड के माफिया डान से मिलने से कम नहीं तथा मधुमक्खी के
छत्ते में हाथ डालने के समान है।
मिलने से मना करने पर भी डाक्टर संजय वर्मा एवं डाक्टर डी0एस0 वर्मा ने टेलीफोन की झड़ी लगा दी तथा दोनो ने हमारा जीना हराम कर दिया। हारकर धर्मपत्नी जी ने रिसर्च एवं शोध पत्र शतकवीर डाक्टर डी0एस0 वर्मा को मिलने का समय दे दिया। विनाशकाले विपरीत बुद्धि। हमने सोचा कि दोनों मिलकर इस आई बला को प्रणाम कर शान्त कर देंगे। मिलने के लिए हामी भरते ही वर्मा जी मिसाइल की सी तेजी से घर के दरवाजे पर धमक पड़े।
डाक्टर डी0एस0 वर्मा को इतनी शीघ्र दरवाजे पर खड़ा देख दिल और दिमाग में किसी अनहोैनी की आशंका उत्पन्न हुई। वर्मा साहब सत्तर वर्ष के आसपास के ही होंगे। बातों में इतने चतुर थे कि चतुराई भी पीछे रह जाये। ऐसे चतुर एवं होनहार खिलाड़ी का हमारे अन्दर इतनी रूचि लेना, वह भी शोध जैसे गंभीर एवं मंहगे कार्य में बहुत अटपटा सा लग रहा था। जहां शोध मेंं लाखों के वारे-न्यारे हो रहे हों तथा शोध के लादेन ओैर तेलगी हर गली मौहल्ले में अपनी दुकान सजाये बैठे हों, वहां वर्मा जी जैसे महान शोध शतक वीर का इस शोध कार्य के लिए इस अनुभवहीन शिक्षिका के घर चक्कर लगाना, हमको अचंम्भित (स्तब्ध) कर रहा था। यहां तो शोध मंडी के बाजार भाव, जोड तोड़, काट-पीट का कोई अनुभव ही नहीं था। शायद वर्मा जी को हमारा यही फक्कड़पना वरदान लगा जहां लाखों का फर्जीवाड़ा मुफ्त मेंं ही हो जायेगा तथा अनुभवहीनता के कारण अर्धशतकों तथा शतकों के रिकार्ड के धोखाधड़ी का भी दबदबा बना रहेगा।
हमारे घर आते ही डाक्टर डी0एम0 वर्मा ने अपनी बातों के तीर से हमले करने प्रारम्भ कर दिये। इसके बाद अपने शोध के अर्धशतक तथा शतकों का खुलकर वर्णन किया। इसके बाद अपनी पुत्री के टापर होने का खुलकर वर्णन किया तथा यह भी बताने से नहीं चूके कि नेट अथवा पी0एच0डी0 के बिना ही उन्होंने अपने ऊँचे सम्बन्धों के चलते सिर्फ एम0 ए0 पास अपनी पुत्री को डिग्री कालेज में प्रवक्ता बनवा डाला था। इस बात को हम दोनों पति-पत्नी आज तक नहीं पचा पाये कि सिर्फ एम0ए0पास डिग्री कालेज में प्रवक्ता किस प्रकार हो सकती है। डाक्टर साहब ने अपनी डींग मे एक और पेैंग बढ़ा दी और बोले कि उन्होंने अपनी लड़की से प्रवक्ता का पद छु़ड़वा दिया और कुछ समय बाद ही उनकी बेटी श्रीमति पंगु वर्मा ने पद से भी त्याग पत्र दे दिया। इससे हमारे अंदर हीनता का भाव जागृत हो गया कि हम दोनों पति-पत्नी उसी नौकरी को (प्रवक्ता) को कर रहे हैं जिसको उनकी बेटी ने पलक झपकने के साथ ही पा लिया और एक ही पल में छोड़ दिया।
अन्त में डाक्टर डी0एस0 वर्मा ने अपना ट्रंप कार्ड छोड़ा कि उनके दामाद जज हैं इस कारण दुनियां का हर कार्य पलक झपकते ही करने में पूर्ण सक्षम हैं। डाक्टर डी0एस0 वर्मा की कटु बातों से प्रभावित होने के स्थान पर, हम उनसे सशंकित होते चले गये तथा मेरी सीधी-सादी धर्मपत्नी ने इस नटवर लाल डाक्टर की पुत्री का शोध गाइड बनने में असमर्थता दिखाते हुए,डाक्टर साहब को प्रणाम कर राहत की सांस ली।
परन्तु डाक्टर डी0एस0 वर्मा उछाड़-पछाड़ के इस खेल के एक मंजे हुए डान थे। वे इस सम्मानपूर्ण विदाई से और ज्यादा उत्साहित होकर दुगुनी शक्ति से फोन पर फोन करने लगे। इतना ही नहीं उन्होंने अपने मित्र डाक्टर संजय वर्मा से भी अपनी खूबियों की बाबत भी निरंतर फोन करवाये। खूबियां बताते हुए एक दिन डाक्टर संजय वर्मा स्वयं यह बता गये कि डाक्टर डी0एम0 वर्मा शोध कार्यो पर हस्ताक्षर मात्र करते हैं तथा उसके लिए अच्छी खासी फिरौती की राशि की तरह, पर्याप्त धनराशि वसूलते हैं। उनकी इस कलाकारी से आप भी आगे लाभान्वित हो सकते हैं। डाक्टर संजय वर्मा ने हमें गंभीर सलाह दी। एक अन्य सिफारिशी फोन से हमें ज्ञात हुआ कि डाक्टर साहब दाखिले के रैकेट से भी जुड़े हुए हैं तथा पिछले दरवाजे से घटी दरों पर दाखिले कराने में भी सक्षम हैं।
हार थककर हम भी अपनी लाभ-हानि ढूंढ़ने लगे क्योंकि ना-नुकर करने का मतलब है कि इतने सारे शक्तिशाली लोगों के बुरे बनना तथा शत्रुता मोल लेकर, अपने भविष्य की सुरक्षा के लिए एक खतरा मोल लेने के बराबर है। सोचा कि जब सारा देश जाति के आधार पर चल रहा है दाखिले, नौकरी, प्रमोशन, चुनाव, टैण्डर, लोन, वजीफा, जनगणना, आयोग, सैलेक्शन कमेटी, राजनैतिक दल आदि सभी जातिगत आधार पर ही कार्य कर रहे हैं तो हम भी क्यों न अपने-अपने वर्मा बन्धुओं के लिए कुछ करें चाहे वे अयोग्य ही क्यों न हों?
दूसरा यह सोचना कि डाक्टर डी0एम0 वर्मा, शोध के खेल के पहुंचे हुऐ खिलाड़ी हैं तथा उनकी पुत्री टापर है, दामाद जज हैं, पहंुच इतनी अधिक ऊँची है कि एम0ए0 पास को ही स्थायी रूप से प्रवक्ता बनवाकर त्याग पत्र भी दिलवा दिया। हम तो क्या उनके जज दामाद भी उनकी इस कला से बहुत अधिक प्रभावित थे तथा दर्जनों बार उनके इस सलेक्शन एवं त्याग पत्र के खेल का प्रसारण कर चुके थे। इससे हमने भी सोचा कि बिना कुछ किये डाक्टर अल्पना वर्मा का भी शोध में खाता खुल जायेगा तथा उनके नाम से भ एक पी0एच0डी0 छप जायेगी। इतना सब होने के बाद मेरी धर्मपत्नी डाक्टर अल्पना वर्मा, डाक्टर डी0एस0 वर्मा की पुत्री श्रीमति पंगु वर्मा की पी0एच0डी0 डिग्री हेतु गाइड बनने के लिए हामी भर दी।
हाँ कहते ही डाक्टर साहब के शरीर में बिजली की लहर सी दौड़ गई। अगले ही दिन डाक्टर डी0एस0 वर्मा साहब की पुत्री श्रीमती पंगु वर्मा अपने जज पति श्री के0पी0 वर्मा के साथ आई। जज साहब पचास वर्ष के आसपास के सामान्य व्यक्ति लग रहे थे परन्तु उनकी पत्नी पूर्णरूप् से जज साहिबा लग रही थी। हमारे देश मेंं यह प्रथा सैकड़ों वर्षो से चलती आ रही है कि पति का ओहदा उसकी पत्नी को बगैर कुछ किये अपने आप ही मिल जाता है। यह प्रथा मुगल काल में काफी प्रचलित रही। अंग्रेजों के शासन में भी इसी नारी सशक्तिकरण को अपनाया गया तथा स्वतँत्र भारत में भी भारतीय नौकरशाही ने इसी परम्परा का अनुसरण किया परन्तु स्वतँत्र भारत में इस परम्परा ने एक शक्ति का रूप ले लिया तथा नारी अपने पति के ओहदे से भी ज्यादा सबल होकर भारतीय नौकरशाही के सशक्त स्तम्भ के रूप में उभरकर सामने आई। श्रीमति पंगु वर्मा नारी सशक्तिकरण का यही उदाहरण था।
जज साहिबा दूरदर्शन की प्रसिद्ध हास्य कलाकार कु0 भारती की बड़ी बहन लग रही थी। पढ़ाई-लिखाई से दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था सिर्फ पिता तथा पति के उछाड़-पछाड़ के खेल में महारथ ने उनको एक अत्यन्त खाती-पीती सशक्त नारी बना था तथा साकार नारी सशक्तिकरण की एक जीती-जागती मिसाल बन गई थी।
कहानी सुनाते-सुनाते वर्मा साहब यानि पतिदेव कुछ थक गये थे तथा अपने उत्पीड़न को याद करके तनावपूर्ण हो जाते थे।
आराम के लिए तथा ध्यान बंटाने के लिए मैंने तीन चाय का आर्डर किया। चाय पीने के पश्चात वर्मा साहब ने आप बीती कहानी फिर से सुनानी आरम्भ की।
हामी भरते ही पिता-पुत्री की इस जोड़ी ने तेज रफ्तार से इधर-उधर से सामग्री उठानी प्रारम्भ कर दी कि कहीं यह फंसी चिडि़या हाथ से न चली जाये। दो दिन बाद शोध कार्य की रूपरेखा तैयार होकर सामने आ गई। जब धर्मपत्नी ने कुछ अपने सुझाव एवं संशोधन दिये तो श्रीमति पंगु वर्मा का बेवाक जवाब था कि पापा इस मामले में तेज गति से कार्य कर रहे है, आपको चिन्ता की कोई आवश्यकता ही नहीं हैं। इंदिरा गांधी एवं पं0-नेहरू की पिता-पुत्री की जोड़ी के बाद शायद वर्मा परिवार की यह पिता-पुत्री की जोड़ी भारत के पिता पुत्रियों की जोड़ी में शायद दूसरी जोड़ी रही होगी जो विद्वता के मामले में अमरत्व प्राप्ति की ओर अग्रसर थी। वर्मा परिवार की विद्वान पिता-पुत्री की इस जोड़ी को सम्मान देते हुए धर्मपत्नी डा0 अल्पना वर्मा ने रूपरेखा को अपने किसी सुझाव एवं संशोधन के समाहित हुए बिना ही शोध विकास समिति में रखने की उनकी बात पर अपनी स्वीकृति दे दी।
निर्धारित तिथि को शोध विकास समिति की मीटिंग में, जिसमें धर्मपत्नी स्वयं भी एक सदस्या थी, जब श्रीमति पंगु वर्मा की उपस्थिति हुई तो उस शोध रूप रेखा पर साक्षात्कार मेंं उनका प्रदर्शन एकदम निराशाजनक रहा तथा भाषा में भारी खामियां पाई गई। रूपरेखा में शायद ही कोई वाक्य सही लिखा होगा जिस कारण् शोध रूपरेखा अस्वीकार कर दिया कर दिया गया।
इस अस्वीकार्यता पर धर्मपत्नी काफी विचलित रहीं । अंग्रेजी भाषा तो ऐसी जैसे कि वह इंग्लिश न होकर कोई नई भाषा हिंगलिश हो गई हो। इस असफलता के बाद भी पिता-पुत्री के दम्भ मेंं कोई कमी नहीं आई। यह रूपरेखा कहीं से उड़ाई गई लग रही थी परन्तु वह भी एकदम गलत।
इस नाकामयाबी के बाद पिता-पुत्री की नकारा जोड़ी को समझने में डा0 अल्पना वर्मा एकदम असफल रहीं। बड़ी ही मुश्किल से गाइड महोदया ने उनकी गड़बड़ झाला प्रारूप को ठीकठाक किया तथा फिर जोड़-तोड़ के माहिर खिलाड़ी डा0 डी0एस0 वर्मा ने अपनी पुत्री के शोध के प्रारूप को पास भी करवा लिया।
इसके बाद श्रीमति पंगु वर्मा ने एक-दो बार गाइड के घर को अपने कदमों से अनुग्रहित किया। पढ़ाई-लिखाई से उनका दूर-दूर का वास्ता नही रहा। काला अक्षर भैंस बराबर की तरह उपाधि पर उपाधि इकट्ठी करे जा रही थी। जज साहब एवं डाक्टर साहब डींग मारने में इतने आगे बढ़े हुए थे कि शायद डींग भी स्वयं अपने आप में लज्जित र्हो जाये। इस अयोग्य पुत्री का स्थायी प्रवक्ता के पद से त्याग पत्र दिलवाना, जज साहब द्वारा न्यायिक परीक्षा पास करना, डाक्टर साहब का शोध मेंं अर्धशतक, शोध पत्रांे में शतक आदि-आदि, एक चालू पांचों वक्त के नमाजी मुल्ला की तरह हर बार सुनने को मिलता था। इतना ही नहीं जज साहब का अपने सम्बन्धों के बल पर यह भी दावा था कि वह अपनी पत्नी श्रीमति पंगु वर्मा को भी हर हाल में जज बनवा देंगे। इसके लिए उन्होंने अपनी पत्नी का कहीं बार में न्यूनतम अर्हता पूरी करने के लिए औपचारिकता के लिए पंजीकरण भी करवा रखा था।
अब तक हमें यह ज्ञान अवश्य हो गया था कि डाक्टर डी0एस0 वर्मा एक झोलाछाप फर्जी डाक्टर थे। पढ़ाई-लिखाई से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था। हमारे आवास के दो-तीन चक्कर लगाने के बाद पुत्री तो इस शोध के फर्जीवाडे़ से एकदम गायब हो गई। अपने महाविद्यालय की कभी भी उन्होंने शक्ल ही नहीं देखी पर उनके शोध घौटालों के खूसट पिता एवं पति गाइड महोदय के पास कहीं से अध्याय के बाद अध्याय उड़ाकर लाते रहे जिनका असली विषय से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। दोनों का शातिर दिमाग गाइड को बहकाने एवं डराने मेंं ही लगा रहा। धर्मपत्नी गाइड उनसे बहकती रहीं और डरती रही। इस शोध कार्य की सबसे बड़ी काली सच्चाई यह थी कि शोधार्थी ने कोई सर्वे कार्य नहीं किया जबकि आठ सौ लोगों पर सर्वे करना था। सारे फर्जी आंकड़े शोध ग्रन्थ के लिए चुराये गये थे। शोध ग्रन्थ का इतनी बड़ा फर्जीवाड़ा देखकर हम दंग रह गये। यह सपनों में भी नहीं सोचा कि इस देश में ऐसा भी फर्जीवाड़ा होता है। एक के बाद एक फर्जी अध्यायों पर पिता-पुत्री-पति के तिकड़ी डरा-धमकाकर तथा दबाव डालकर हस्ताक्षर कराती रही।
एक दिन यह तिकड़ी पूरे बाहुबल के साथ एकदम नये बंधे-बंधाये शोध ग्रन्थ की पांच कापियों के साथ आ धमके। फर्जी-नकल के इस शोध ग्रन्थ को लेकर इस तिकड़ी ने अन्य दो लोगों के साथ आकर हम दोनों को एक तरह से बंधक बना लिया। उस दिन जबरदस्ती हस्ताक्षर करवाने के लिए तीनों ने अभद्रता की सारी हदें पारकर दीं। धमकाना, गाली गलौज, झूठे केसों में फंसाने की धमकी, पिटाई की धमकी आदि-आदि। हम दोनों उनसे इतने भयभीत हो गये कि धर्मपत्नी ने हस्ताक्षर करने में ही अपनी भलाई समझी।
इतना कहकर वर्मा दंपत्ति के चेहरे पर पसीना झलक आया। उस दिन को याद करके दोनों के चेहरे पर आज भी घबराहट देखी जा सकती है।
इस धींगामुश्ती के बाद यह तिकड़ी कुछ दिन चुपचाप रही परन्तु कुछ दिन बाद इस तिकड़ी ने फिर अपने हट्टे-कट्टे साथियों के साथ हमारे गरीबखाने के चक्कर काटने प्रारम्भ कर दिये। उनके दम खम से ऐसा लगता था कि जैसे हमारे गरीबखाने के, उनके भय के कारण खिड़की दरवाजे हिलने लगते हों। हमें वहां से घर छोड़कर भागना पड़े। अब वह डाक्टर अल्पना वर्मा पर दबाव डाल रहे थे कि शोध ग्रन्थ जमा होने से पूर्व होने वाले ’प्रि सबमिशन सेमिनार’ को बिना कराये ही उसका प्रमाण पत्र दे दें। उनकी धमकियों ओैर दबाव के चलते अनेक बार हमे घर के अन्दर ही छिपना पड़ जाता था। धमकीभरे फोन आना तो एक आम बात हो गई थी।
विश्व विद्यालय के उप-कुलपति प्रोफेसर कुनेजा, डीन प्रोफेसर मक्कार वाल, उप डीन प्रोफेसर दुर्जना वर्मा आदि के दबाव भरे फोन आना आम बात हो गई थी। इसके साथ ही साथ झूठे एवं मनगढ़ंत आरोपों का भी दौर प्रारम्भ हो चुका था। अंधेर नगरी चौपट राज। चोर का साथी चोर। इस चोर तिकड़ी को विश्वविद्यालय प्रशासन से भरपूर सहयोग की प्राप्ति हो रही थी।
शोध छात्रा पंगु वर्मा ने शोषण के इतने आरोपों का घड़ा फोड़ना प्रारम्भ किया कि शायद कार्ल माक्र्स भी अपने कब्र में लेटा उठ बैठे। यहां तक कि आधी रात के आसपास जज साहब भी महिला कालेज के चककर लगाते थे तथा झूठी सच्ची शिकायतें प्राचार्या से जाकर किया करते थे। अन्त में इस फर्जी शोध कार्य का जमापूर्व सेमिनार कराने के लिए प्राचार्या एवं गाइड पर दबावभरे फोन विश्वविद्यालय से आने लगे। विश्वविद्यालय का एक पत्र तो खुले लिफाफे में जज साहब स्वयं लेकर गाइड महोदय के घर आये। इस सम्पूर्ण नाटक से विश्वविद्यालय भी काफी प्रभावित हुआ तथा उप- कुलपति प्रोफेसर कुनेजा, डीन प्रोफेसर मक्कारवाल, उप डीन प्रोफेसर दुर्जना वर्मा सभी ने मिलकर प्रि-सबमिशन सेमिनार की औपचारिकताएं पूर्ण करवा दी। इसमेंं श्रीमति पंगु वर्मा ने टूटी-फूटी अंग्रेजी में दो-चार पृष्ठ पढ़ दिये। इससे इतिश्री हो गई। जब कोई भी प्रश्न पूछता तो प्रोफेसर मक्कारवाल एवं सहायक डीन प्रोफेसर दुर्जना वर्मा एकदम उग्र होकर हमला कर देते। इस फर्जी वाड़े का कोई भी प्रमाण न रहे इस कारण कोई सीडी अथवा रिकार्डिग भी नहीं की गई।
इतना ही नहीं जब फाइनल रिपोर्ट लिखी जा रही थी तो श्रीमति पंगु वर्मा के जज पति एवं झोलाछाप डाक्टर पिता डीन के साथ में बैठे हुए थे। इस फर्जी वाडे़ के बाद कब और कैसे शोध गं्रथ जमा हो गया गाइड महोदय को कुछ भी आभास नहीं हुआ। श्रीमति पंगु वर्मा के शोध गं्रथ जमा होने का पता जब चला जब फिर से
सहायक डीन प्रोफेसर दुर्जना वर्मा ने मनपसंद परीक्षकों के नाम भेजने के लिए दबाव बनाने का फिर से एक नया ड्रामा प्रारंभ कर दिया। धर्मपत्नी फिर सकते में थी कि उनके हस्ताक्षर के बिना ही वह ग्रंथ भी जमा हो गया। शायद उनके किसी पुराने हस्ताक्षर के साथ छेड़छाड़ करके जमा करने में उपयोग कर लिया गया होगा।
इतनी बड़ी कहानी सुनाकर वर्मा साहब ने फिर से लंबी सांस ली और बोले कि अंधेर नगरी चोैपट राज विश्वविद्यालय की महान दास्तान। कुछ देर रूककर वर्मा साहब ने फिर से बोलना प्रारम्भ किया।
इस तिकड़ी के संबंधों के जाल का यह हाल था कि घर बैठे ही श्रीमति पंगु वर्मा को विश्वविद्यालय एवं देश के कौने-कौने से सेमिनार/कांफे्रस में शोध पत्र प्रस्तुत करने के प्रमाण पत्रों की लाइन लगा दी। दर्जनों प्रमाण पत्र उनकी फाइल में भरे रहते थे। रिसर्च जनरल भी ऐसे थे कि शायद ही किसी ने उनका नाम ही सुना हो। यहां तक कि प्रमाण पत्रों की भाषा भी एकदम अशुद्ध होती थी। एक बार इसी तरह का एक शोध पत्र पढ़ने का दु-अवसर प्राप्त हुआ पत्र पढ़ने उपरांत पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गयी। इस शतकवीर पिता तथा टापर बेटी का शायद ही कोई वाक्य सही होगा। इस प्रकार यह लगने लगा कि पिता तोे शायद शतक ही लगा पाये परन्तु उनकी टापर पुत्री सचिन तेंदुलकर के शतकों का भी रिकार्ड तोड़ डाले। इस देश में सभी कुछ धन्य है। धन्य हो शिक्षक पिता जो अपनी पुत्री को चोरी सिखा रहा है। धन्य हो जज पति जो अपनी पत्नी के फर्जी शोध ग्रंथ में कन्धे से कन्धा मिलाकर भाग दौड़ रहा है। सौ में नियानवे बेईमान फिर भी मेरा भारतशायद इस परिवार ने चोरी का डी0एन0ए0 मंगवाकर अपने अन्दर चढ़वा रखा हो। एक ईमानदार सभ्य शिक्षिका की मदद करने वाला विश्वविद्यालय में अन्य कोई नहीं मिला अपितु इस बेईमान टिकड़ी की पूरा विश्वविद्यालय मदद कर रहा था।
शोध ग्रंथ जमा होने के चार-पांच दिन बाद एक दिन डाक्टर डी0एस0 वर्मा फिर से आ टपके। उन्हाेंंने विश्वविद्यालय का एक बड़ा सा लिफाफा सामने लाकर रख दिया जिस पर अति गोपनीय लिखा था परन्तु लिफाफा खुला हुआ था। खुले लिफाफे मेंं तीनों विशेषज्ञों की तीन रिपोर्ट रखी थी। मौखिक परीक्षक का नाम व पता एक अन्यफार्म पर लिखा हुआ था। हम दोनों फिर सकते में थे कि ये क्या हो रहा है? अति गोपनीय नाम व रिपोर्ट खुले लिफाफे मे घूम रही है। परीक्षक का नाम शोधार्थी के पिता लेकर घूम रहे थे। ये सभी पत्र एवं पेपर उनके पास किस प्रकार पहुंच गये? इतने बड़े शिक्षा के महाबली डान को देखकर डाक्टर अल्पना वर्मा कुछ भी बोल नहीं पा रही थीं तथा वे एकदम हक्की -बक्की रह गई।
चार पांच दिनों में तीन-तीन रिपोर्ट कैसे आई? चार-पांच दिनों में तो इस देश में कहीं डाक भी नहीं पहुंचती। तीनों रिपोर्ट पढ़ने उपरान्त ऐसा लग रहा था कि जैसे डा0 डी0एस0 वर्मा ने तीनों रिपोर्ट स्वयं अपने आप से लिखकर विश्वविद्यालय में जमा कर दी।
डाक्टर डी0 एस0 वर्मा की खानदानी शक्ति को सलाम करते हुए डाक्टर अल्पना वर्मा ने मौखिक परीक्षक को छ: पत्र लिखे। वहां से कोई भी जवाब नहीं आया। शायद नाम-पता ही फर्जी हो। फिर विश्वविद्यालय को भी अनेक पत्र लिखे गये परन्तु इस बार सुपरफास्ट विश्वविद्यालय से कभी कोई जवाब नहीं आया। फिर एक दिन डाक्टर डी0एस0 वर्मा स्वयं आ धमके। इस बार एक फार्म पर उन्होंने मौखिक परीक्षा के परीक्षक के हस्ताक्षर करवा रखे थे तथा डाक्टर अल्पना वर्मा से भी बिना मोैखिक परीक्षा के हस्ताक्षर करवाने के लिए दबाव डालने आ धमके परन्तु इस बार धर्म पत्नी ने अपना साहस दिखाया तथा उनके सब्र का सेतु टूट गया। उनके फर्जीवाड़े को लेकर उनको खूब
खरी खौटी सुनाई। इस बार वह तिकड़ी भागती नजर आई।
परन्तु कुछ समय बाद हमारी धर्म पत्नी को विश्वविद्यालय किसी कार्य से जाना पड़ा। वहां जाकर पता चला कि मौखिक परीक्षा पर डीन प्रोफेसर मक्कारवाला ने गाइड को अनुपस्थित दिखाते हुए मोैखिक परीक्षा के प्रपत्र पर हस्ताक्षर करके श्रीमति पंगु वर्मा को डाक्टरेट भी दिलवा दी। ईमानदार सभ्य लोगों के ग्रंथ दो-दो वर्षो से
जमा हैं उनकी सुध लेने वाला कोई भी नहीं है परन्तु इस नटवर लाल की पीएच0डी0 पन्द्रह दिवसों मेंं ही एवार्ड हो गई।
अब बजने वाली फोन की हर बजने वाली घंटी से यह इंतजार रहता है कि अब किसी दिन डाक्टर पंगु वर्मा जज अथवा महाविद्यालय में स्थायी प्रवक्ता बनने की अशुभ सूचना दें। कब प्रोफेसर डाक्टर मक्कारवाल एवं डाक्टर प्रोफेसर दुर्जना वर्मा कहीं उप-कुलपति बनें। अचानक कालेज मे लड़्कियॉ मे एक खबर आग की तरह फैली कि MkDVj iaxq oekZ प्राचीन पवित्र नगरी मे एक स्वायक्त् शासी egkfo|ky; esa LFkk;h izoDrk हो गयी हैं।
इतनी कहानी सुनकर वर्मा दंपत्ति कुछ समय तक आंख बंद करके बैठे रहे। कुछ समय बाद उनके चेहरे पर कुछ शांति दिखाई दी। इसके बाद वर्मा साहब ने पुन: बोलना प्रारम्भ कर दिया। पंगु वर्मा को पीएच0डी0 मिलने के बाद हमें भी मुक्ति मिल गई। अब इन चोरों के चोर बाजार से हमें भी छुट्टी मिल गई। शिक्षा एवं न्याय के कहानी खत्म होते ही हम तीनों अपनी -अपनी बर्थ पर जाकर सो गये। दिन निकलते ही ट्रेन हरिद्वार पहुंच गई। हरिद्वार पहुंचकर हम तीनों गंगा नदी के तट पर पहुंच गये। वर्मा दम्पत्ति ने वह लिफाफा नदी मेंं प्रवाह कर दिया तथा जब तक उसे देखते रहे जब तक कि वह लहरों में आंखों से पूरी तरह ओझल न हो जाये। इसके बाद दोनों ने गंगा में स्नान किया तथा पड़ाव के अंतिम दौर में श्री हनुमान मंदिर मेंं पहुंचकर भगवान को दण्डवत प्रणाम किया जैसे गा रहे हों:-
भूत पिशाच निकट नहीं आवे/महावीर जब नाम सुनावे/
संकट ते हनुमान छुड़ावें, मन क्रम वचन ध्यान जो लावें।
(यह लघु कथा भ्रष्टाचार के ऊपर एक व्यंग्य मात्र है तथा स्थान, नाम, कहानी, सभी काल्पनिक हैं। किसी से किसी अंश की समानता मात्र संयोग होगा उसके लिए लेखक क्षमा प्रार्थी है तथा उसके लिए कोई उत्तरदायी नहीं है।)
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