अपने मुल्क का नज़ारा, सहा नहीं जाता;
दहलीज़ से बाहर का खौफ देखा नहीं
जाता:
गुंगे-बहरौं की बसेरा
है साहब, देखा नहीं जाता ;
अबला की लुटती आबरू पर, कोई तबज्जो देता नहीं जाता
।
चोटी से ऐड़ी तक, सिहरता जिस्म, देखा नहीं जाता,
कच्ची उम्र की कलियों का मसला
जिस्म देखा नहीं जाता;
रोते चमन में, ज़ामों का खनकना देखा नहीं
जाता;
नफरतों के इस दौर
में, महफिलों का सजना, देखा नहीं जाता ।
लाखों बे-ज़मीरों का
मजमा, जिहदियों के ज़नाज़ों में, देखा नहीं जाता;
और वशिष्ठ नारायण का लावरिस
शव, देखा नही जाता;
दबी लाचार सिसकती सड़्कों पर, खूनी दहशतगर्द देखा नहीं जाता;
मौत की वदियों में, हंसते-खेलते बेखौफ कातिल देखा
नहीं जाता।
बर्फ से सूजे कानों पर, बहशियों का अट्टाहास, देखा नहीं जता:
खोख्ले नारों का सौदगर, पैगम्बर, देखा नहीं जाता;
लगाई आग पर, सेकता कसाई देखा नहीं जाता;
दर्द के खलिफाओं की आवाज़ और
आगाज, देखा नहीं जाता ।
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