उदास-खामोश बैठा था
अपने खाली सूने आंगन में,
एक गौरय्या बना रही
थी घोंसला एक घने पेड़ में।
जल्दी-जल्दी आती और
जल्दी-जल्दी जाती वो,
घास-फूस के तिनके, चोंच से पकड़ कर लाती वो।
बुन रही थी वो अपना
घोंसला एक नया प्यारा,
सिर्फ घास-फूस थी, उसका साजो सामन न्यारा।
दिन बीते, मौसम बदले, और रुख बदला हवा का,
छोटे पांच बच्चे, फड़्फड़ाने कर लगे तोड़्ने डर खामोशी का।
चुग्गा खिला खिला कर, कर रही थी गौरय्या ख्ड़ा पैरों पर उन्हें,
नाच उठती थी मां गौरय्या
देख पंख फड़्फड़ाते उन्हें।
निहरता रोज़ उन्हें, दिल जुड़ सा गया, लगने लगे अपने बच्चे,
पर पंख लहराते, चूं-चूं करते उड़ गये, खो गये सारे बच्चे।
दुखी होकर पूछा मैंने गौरय्या से, छोड़ क्यों गये बच्चे तेरे बेवजह,
अपनी मां से रिश्ता
तोड़ क्यों गये, हम बेगैरत इंसानों की तरह।
दुखी-रोती गौरय्या
बोली, तेरे बच्चे भी तुझे छोड़ गये,
बगैर कुछ करे ही
तेरे लिये, अपना हक छीन ले गये।
मेरे बच्चे भी चले
गये मुझे बेसहारा बिलखता अकेला छोड़ यहीं,
पर वो मुझसे लड़ेंगे
नहीं, क्यों कि पास मेरे देने के लिये कुछ नहीं।
अब तो समझ गये मेरे
भाई, यहां सम्बंध राजनीति के सिवा नहीं कुछ,
और इस फरेबी दुनिया
में, रिश्ते एक व्यापार के सिवा नहीं कुछ।
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