ब्राह्मण ना होता...
मत रोको मंज़िल मेरी, मुझे जाने दो
कांटे रोकते पर मुझे फूल
लगाने दो
दरिया रोकते पर मुझे किश्ती
चलाने दो
इस झूठी दुनिया में मुझे
खुशियां बहाने दो। 
डगर चलने में भी लजाती होती
अगर हवाओं में नज़ाकत ना
होती
राह की दुष्वारियों हावी होतीं
अगर उस पार खुशियां ना
होतीं। 
मैं खौफ में बहने का मंज़र
हूं, 
मत रोको, मैं बहता मुसाफिर हूं, 
सरह्द के खौफ पर भी
मुस्काया हूं, 
मैं शमशानों से सांसें लूट
कर लाया हूं। 
ज़िंन्द्गी किस्मत की आंख
मिचौनी है, 
मौत को भी हरा कर आया हूं, 
नहीं मांगता भीख दया की
दुनिया में, 
दुनिया से लड़्ने का आदि
हूं। 
मेहनत के पसीने से धरा फलती
है, 
जिन्दगी की मशाल तुफानों
में उड़्ती है, 
अंगारों से राह मुसाफिर को
दिखती है, 
वीरांगना की मांग लहू से
भरती है। 
राह में हलचल आती है, पग के कांटों से, 
जिन्दगी को कांटों से सजने
दो, 
मुफ्त से राह सुलभ नहीं
होती है, 
जिन्दगी में सिसकियों को खेलने
दो। 
बाधा नहीं होती तो खुशीयॉं
नही होतीं, 
वीरानगी नहीं होती तो निर्माण
नहीं होता, 
हिम-पर्वत ना होते, तो नदी की धारा ना होती, 
पांव नंगे ना होते तो राह सुगम
ना होती।
तूफानों में राह बनाता पागी
हूं, 
भटकती मानवता से ठोकर खाता
हूं, 
ठोकर खाकर भी हंसता रहता
हूं, 
मैं ब्राह्मण ज्ञान ही बरसाता हूं। 
Labels: ब्राह्मण



0 Comments:
Post a Comment
Subscribe to Post Comments [Atom]
<< Home