Wednesday, 29 January 2020

माँ का चौका





माँ का वो चौका,
ना वो कोई किचन था, ना कोई रसोई,
खाने के साथ, प्यार था भर पेट जहां

कुछ ईंट, कुछ मिट्टी, कुछ गोबर,
अपने ज्ञान से, खाली एक साफ कोने में,
मोड्युलर किचन से भी आगे, बनाया था एक घर।

तृप्त खाने के साथ, जहाँ होता था,
चिंता, प्यार, अपनापन रिश्ते-नातों का सार,
और एक असिमित ज्ञान का भंडार्।           

नहाये बिना, चुल्हा कभी जला नहीं,
सर्दी हो या हो गर्मी, बीमार हो या स्वस्थ,
लगता था भोग भगवान का पहले सबसे।

पहली रोटी गऊ-ग्रास की और आखिरी कुत्ते की,
मेहमान हो या हो अनजान,
रखती थी वो सबका मान।  

लाइन में करीने से लगे सभी डिब्बे,
भरे रहते थे, बेखबर बाजार की मार से,
कुछ डिब्बे होते थे रिजर्ब अन्जानी ब्यार के।

गुँजिया, लड्डू, मिठाई, घेवर,
गुलाम होते थे, मेरी माँ के ज्ञान के,
पर हमारी भूखी तीखी आंखॉं के होते थे वे तारे ।   

खुद खाती थी हमेशा सबके बाद,
जब हम तृप्त-गर्म खाने के बाद,
होते थे सोये कम्बल और रजाई में।

आज सब कुछ नया-नया है, मोड्युलर किचन में,
स्टोव, गैस, मिक्सी, फ्रिज, ओवन,
पर नही है तो ताजा-गर्म भरपेट खाना।

भोजन बन गया लंच-डिनर,
चिंता, प्यार, अपनापन रिश्ते-नातों की सार,
सब कुछ विदा हो गया मां के साथ्।

माँ की अर्थी क्या उठी, उठ गयी,
अनमोल आवाज, बेहिसाब चिंता, तृप्त पेट,
उजड गयी एक सभ्यता, रह गयी सताती याद्।

वो खाली चौका, वो मिट्टी का चुल्हा,
प्यारी झिड्की, चेहरे पर गुस्सा, आँख मे पानी,
एक गहरी सकून, बस बन गया एक दुखद अतीत।

माँ की चिता की गगन चूमती लपटें, राख हो गयीं,
प्यारी झिड्की, मिठाईयां, आंख का पनी, मिट्टी का चूल्हा,  
और पीछे छुट गयीं बिलखती यादॅ और एक ठंडा चुल्हा।

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