सफरनामा
एक अंजान सा डर,  बन गया है, हमसफर जिंदगी का, 
मां और बाप का नहीं, बहन और भाई का नहीं, 
औरत और औलाद  का नहीं,  दोस्त और दुश्मन का नहीं।
बस एक अंजान सा डर, साथ रहता है, हर पल, 
मरने का नहीं, बल्कि मर-मर कर जीने का डर, 
कभी तो अपनों के हाथों से, तो कभी पराये हाथों से, 
ये ना तो ज़ीने देते हैं, और दुष्ट जिंदगी मरने भी नहीं देती।
बस इसी कश्मकश मे खो जाती है और बह जाती
है जिंदगी, 
असल जिंदगी तो वही है, जहां मरने का गम नहीं, 
और जीने का कोई गरूर नहीं, मर के जहां लौटा ना कोई। 
कहीं आयेगा खुशियों का सैलाब, कहीं मिलेंगे शिकवों के जलजले, 
कहीं मिलेंगे मन के मीत, कहीं मिलेंगे दुर्जन गीत, 
तू चलाचल बेखबर राही, जैसे तेरे होंगे कर्म, 
घड़ी-घड़ी बदलती दुनिया मे, वे ही होंगे तेरे चांद-सितारे।   

