बीत गये बरसौ
बीत गये बरसौ, आस्मा के नीचे, छत पर सोये, 
तारौ से बात करे, चांद से मुलाकात किये, 
माशुका को अंगड़ाई लेते देखे, 
चादर मे कुम्ड़ाई लेती जवानी को  देखे ।  
 
ना कोई सप्ताऋषि का आशिर्वाद, 
ना ध्रुव तारे का मार्ग दर्शन, 
ना सावन की रिमझिम, 
और ना ही चंदा का गलियारा। 
ना कोई टूट के गिरता तारा देखा, 
ना कोई मन्नत मॉगता हैरान-परेशान देखा, 
ना देखी कोई उड़्ती तश्तरी,
और ना देखी कोई काली जन्नत। 
खो गई आकाश गंगा, 
और खो गये भागते-बहते तारे, 
खो गया आपस का प्रेमलाप, 
और खो गयी हॅसति-खेलती दुनिया। 
ना रात की बारिश की फुहारॉ से, 
बिस्तर लपेट कर कोई भागते देखा, 
ना कोई बादलॉ की गड़्गड़ाहट से, 
मॉ के ऑचल मे छिपते देखा। 
गर्मी से बचने को कोई, 
चादर भीगोते नही देखा,
हल्की, फुहरॉ मे भी कोई, 
चादर लपेट्कर सोते नही देखा। 
तपती जेठ की आग मे भी, 
लस्सी-सत्तू बनाती मॉ नही देखी, 
लोरी-कथा सुनाते नही देखा
दादी-नानी को भी आज। 
अब ना कौवे को कॉव-कॉव करके, 
सोयॉ को जगाते नही देखा, 
ना ही किसी कोयल को, 
अपने मीठे राग से सुलाते देखा। 
चकाचॉध-विज्ञान ने, 
सबको छका दिया है, 
बंद कमरॉ मे सोकर, 
अंदर का अंजाना भय भुला दिया है। 
तरस रही रातॅ अब, 
हवा मे प्रेम-रस लायॅ, 
कभी अकेले छ्त पर आओ, 
हम भी छुपकर गले लगायॅ। 



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