उच्च
शिक्षा में दाखिल छात्रों की बड़ी संख्या को देखने पर लगता है कि भारत उच्च शिक्षा में विश्व में अन्यतम अग्रणी लगता है, लेकिन गहराई से जाने पर उसकी
वास्तविक स्थिति अत्यंत खराब है, जिसमें ज्ञान के नाम पर एकदम
शून्यता हैं और भविष्य एकदम अस्पष्ट
एवम अंधकार-पूर्ण है। दुर्भाग्यवश अब इस इस अस्पष्ट एवम अंधकार-पूर्ण माहौल से से बाहर निकलने
का कोई तरिका भी नहीं दिख रहा है। शिक्षक
एवम विश्वर्थी इस महौल में जगह-जगह बर्बाद हो रहे हैं। उन्हें
सही माहौल की प्रतीक्षा है। इस बर्बाद
क्षिशा का प्रारम्भ डा. मन मोहन सिंह के तथाकथित सुधारॉ से शुरू हुआ था जब उन्होंने अपने शासन काल में भारत में सुधारॉ को विश्वविद्यालयों मे प्रारम्भ किया था । पश्चिम
के देशॉ की आँख बंद करके, और अपनी जरूरतों को भूल कर, उन्हॉने उनकी नकल प्रारम्भ
कर दी थी। विश्वविद्यालयों एवम कालेजॉ
मे उन्ही के मुताबिक क्षिशा की व्यवस्था तैयार करने
के लिए उन्होंने सुधार प्रारम्भ कर दिये थे। इन विश्वविद्यालयों एवम कॉलेजों के लिए उपाधि देने, पाठ्यक्रम
बनाने, मूल्यांकन आदि और उन पर निगरानी
रखने की सारी जिम्मेदारी संभालने के लिए उन्हे पूरी स्वतंत्रता दे दी गयी। विश्वविद्यालयों एवम कॉलेजों मे शिक्षण गुणवत्ता पर कोई ध्यान ही नही दिया गया।
गली में विश्वविद्यालय एवम कॉलेज तो स्थापित होते चले गये, पर वहां पर शिक्षण कार्य अथवा
उसकी गुणवत्ता पर कोई ध्यान ही नही दिया गया। अब यह विश्वविद्यालय एवम कलेज
केवल परीक्षा एवम दखिले के केंद्र मात्र रह गये। यही स्थिति
देश के सभी विश्वविद्यालयों एवम कालेजॉ
की भी थी जो काफी
पुराने भी थे। पहले विश्वविद्यालय एवम कॉलेज मे सिर्फ क्षिशा
एवम गुणवत्ता पर ही ध्यान दिया जाता था तब शिक्षा विश्वविद्यालय एवम कॉलेजों द्वारा
ही दी जाती थी जो स्वयं स्वतंत्र इकाई की तरह कार्य करते
थे।
उच्च
शिक्षा की प्रारंभिक व्यवस्था में विश्वविद्यालय सिर्फ प्रशासनिक कार्य करते थे और शिक्षण और ज्ञान-सृजन की
दृष्टि से उनकी भूमिका ना के बराबर थी। शिक्षण
कार्य ज्यादातर कालेजॉ मे ही होता था। यही मॉडल भारतीय उच्च शिक्षा का
मूल आधार बना। सिर्फ कुछ आवासिय विश्वविद्यालयॉ
मे शिक्षण कार्य होता था। सुधारॉ के साथ प्रांतीय सरकारों एवम निजी क्षेत्र मे भी उच्च शिक्षा के नये केंद्र शुरू किए गये और कॉलेजों
को संबद्धता देने वाले नये विश्वविद्यालय भी स्थापित किए। इससे
उच्च शिक्षा का भारी प्रसार और विस्तार
हुआ परंतु
गुणवत्ता का पतन होता चला गया। आज उच्च शिक्षा के स्तर पर लगभग 85 प्रतिशत छात्र कॉलेजों में पढ़ रहे हैं और 15
प्रतिशत छात्र विश्वविद्यालयों में पढ रहे हैं। आज अधिकतर विश्वविद्यालय एवम कालेज ज्ञान का सृजन करने वाले केंद्र
कम और प्रमाणपत्र जारी करने वाली
मंडी अधिक हैं। तथाकथित
सुधारॉ के नाम पर देश में केंद्र
सरकार ने उच्च शिक्षा के नियमन और विस्तार
के अधिक अधीकार अपने हाथ मे ले
लिये जिन्हे निभाने मे वह एकदम असफल रही तथा उसने अपने अधिकार एवम दायित्व एक तरह से दूसरॉ को बेच
दिये।
संविधान
में शिक्षा को राज्य की सूची का विषय माना गया है, परंतु उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा और
व्यावसायिक शिक्षा आदि की दृष्टि से केंद्र को विशेष
अधिकार एवम
भूमिका दी गई हैं। स्कूली शिक्षा मूलत: राज्य का विषय है, परन्तु चौदह (14) वर्ष की आयु तक प्राथमिकशिक्षा, मुफ्त एवम अनिवार्य रूप से प्रदान करना केंद्र और राज्य दोनों का कर्तव्य एवम दायित्व है। कुल मिलाकर केंद्र को शिक्षा के मामले में अधिक
अधिकार
दिये गये हैं।
संविधान के 42 वें संशोधन द्वारा
शिक्षा को पूर्ण रूप से समवर्ती (राज्य) सूची में रखकर केंद्र को
शिक्षा के
मामलॉ मे राज्यों का स्थायी सहयोगी बना दिया गया।
देश में आज लगभग आठ सौ से ज्यादा
विश्वविद्यालय
हैं। इसी तरह लगभग
पैतालिस हजार से ज्यादा कॉलेजों की संख्या है। 2014-15 के आंकड़ों
के अनुसार देश में 757 विश्वविद्यालय और 40,760 कॉलेज थे। केंद्र के अधीन, केंद्रीय विश्वविद्यालय और उच्च
शिक्षा के अन्य केंद्रीय संस्थान 162 हैं। मानित अर्थात डीम्ड विश्वविद्यालय 160, निजी (प्राइवेट ) विश्वविद्यालय 267 और 168 राज्य शासन
के अधीन विश्वविद्यालय हैं। छात्र संख्या भारी तादात मे बढ़ी जरूर है, लेकिन अभी भी 18 से 23 वर्ष
के आयु वर्ग में केवल 24 प्रतिशत छात्र
ही उच्च शिक्षा में अध्ययनरत हैं जोकि बारह करोड़ के
आस्पास है।
केंद्र
सरकार ने उच्च शिक्षा को नियमित करने के लिए अनेक नियामक संस्थाओं की जैसे बाढ़ सी ला दी है परंतु
स्तर फिर भी एकदम गिरा हुआ है। जैसे यूजीसी, नैक, एमसीआई, अभातआ, एमसीए. एनसीटीई इत्यादि का गठन किया जो
मान्यता देने, कार्य-दशाओं, वेतन मान तय करने आदि का कार्य करते हैं परंतु स्तर
सुधारने मे एकदम विफल रहे हैं। इन नियामक संस्थाओं से जहॉ एक ओर जहॉ भ्रष्टाचार को
भारी बढावा मिला है वही इनसे शिक्षा का स्तर एकदम गिर गया है। इस कारण नीट, मैट, कैट, जेईई आदि प्रवेश परीक्षाएं
का स्तर
एकदम गिरता जा रहा है।
आमतौर पर यह
माना जाता है कि उच्च शिक्षा
पूर्णरूप
से केंद्र
के नियंत्रण
मे है। यह सत्य है कि अध्यापकों की सेवा शर्तें, वेतनमान, अर्हता, कार्य के घंटे, प्रोन्नति आदि यूजीसी तथा अन्य केंद्रिय
नियामक संस्थाओं करती हैं परंतु
राज्य सरकारें इन्हें लागू करने में न केवल पूरा नटक करती हैं अपितु हीला-हवाला भी करती हैं और बल्कि प्राय: ग्रांट न देने के कारण ढूढ्ती हैं या फिर भविष्य में अपने बल पर वेतन आदि देने के बदले केंद्र से ब्लेकमेलिंग करती हैं तथा केंद्र की अनेक योजनाओं का लाभ ही नहीं उठाती हैं तथा दोष केंद्र पर मढ देती हैं। इससे राज्य शासित अनेक विश्वविद्यालयों एवम कालेजो मे बढी संख्या में स्वीकृत पद लैप्स आथवा खत्न हो जाते हैं। राज्यों को लगता है कि केंद्र उनके अधिकारों का हनन कर रहा है। वे विकल्प एवम बहाना ढूंढ़ते हैं। उन्होंने इस कारण नेट की जगह स्लेट चलाया। परंतु स्तर बहुत गिरा दिया।
केंद्र
सरकार ने तेजी से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों, भारतीय प्रबंधन संस्थानों, केंद्रीय ला विश्वविद्यालयों, केंद्रीय विश्वविद्यालयों, केंद्रीय
मेडिकल कालेज और राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं आदि की स्थापना बडी संख्या मे की। उन्हें पर्याप्त साधन मुहैया कराए और उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करने पर ध्यान सिर्फ फाइलौ तक ही सीमित रह गया। दूसरी और राज्य सरकारों ने उच्च
शिक्षा के स्तर की तरफ आंख मूंदकर उच्च शिक्षा
के विस्तार का काम किया। तथा गली-मुहलौ मे कालेज एवम विश्वविद्यालय खोल डाले। राज्य सरकारों ने राजनीतिक दबाव तथा व्यवसायिक लाभ और सस्ती लोकप्रियता अर्जित
करने के लिए गुणवत्ता का ध्यान रखे बगैर उच्च शिक्षा को बढ़ावा दिया। इससे
शिक्षा की
गुणवत्ता
बढी तेजी से गिरी। फिर निजी क्षेत्र भी इसमें घुसपैठ कर शामिल हो गया और स्ववित्तपोषित कॉलेजों की बाढ सी आ गयी।
आज शिक्षक भी पढाई से ज्यादा फालतु के काम मे लगा रहता है जैसे
सेमिनार, कांफ्रेंस, वर्कशाप, शोध, लेख एवम पुस्तक लेखन, प्रोजेक्टस, लेक्चर, आदि मे लगा रहता है। शिक्षा, ज्ञान या कौशल से उसका कोइ वास्ता ही नही रहता है। ज्ञान रहित, डिग्री धारित, शिक्षित बेरोजगारों
की संख्या बढ़ती ही जा रही है। उच्च शिक्षा की व्यवस्था में स्वायत्तता
दिनोदिन कम होती जा रही है और सरकारी नियंत्रण अधिक होता जा रहा है जो अनावशयक दखल के रूप में बढ़ता जा रहा है। जोभी
स्वायत्तता है उसका उपयोग कम परंतु दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है। स्वायत्तता के नाम
पर खाप पंचायत की तरह विश्वविद्यालयों मे जतिगत पार्टियॉ बन गयी हैं। आज हर विश्वविद्यालय
मे अनुसूचित-जाति,
अनुसूचितप-जन-जाति,
पिछ्ड़ी जाति,
अम्बेड्कर ग्रुप,
अल्पसंखयक मोर्चा आदि के नाम पर अनेक जातिगत एवम सामप्रदायिक समूह बन गये हैं जो
सिर्फ विघटनकारी राजनिति मे ही लगे रहते हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली
एवम अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय इसके ज्वलंत उदाहरण हैं।
उच्च
शिक्षा के क्षेत्र में निजीकरण
ने घटिया व्यवसायिकरण का एक और आयाम जोड़ा है। पुरनी सरकारें पहले तो निजीकरण से बचती रहती थी, लेकिन डा.मन मोहन सिह ने उदारीकरण के नाम पर निजीकरण का अंधा युग प्रारम्भ कर दिया। समवर्ती सूची का दुरुपयोग करते हुए अनेक राज्यों ने अपने नये-नये एक्ट बनाए। इसी के साथ निजी विश्वविद्यालयों की आंधी आ गयी। परंतु
यूजीसी के द्वारा सिर्फ संबद्धता नहीं देने के करण ऐसे विश्वविद्यालयों, और उनका कार्य
क्षेत्र की
मन्यता सिर्फ सनबंधित प्रदेश तक ही सीमित रह जाती है।
आज देश मे लगभग 250 निजी विश्वविद्यालय स्थापित
हो चुके हैं। निजी कॉलेजों की संख्या में भी अनियंत्रित रूप से वृद्धि हो रही है और उन्होंने उच्च शिक्षा
का महौल ही
बदल गया है। सरकारी विश्वविद्यालयों से संबद्ध एवम मान्यता प्राप्त ये कॉलेज संख्याबल के कारण
समूची शिक्षा व्यवस्था पर
बुरी तरह हावी होते जा रहे हैं।
राजनिति, जोड़तोड़, धनबल आदि के चलते निहित स्वार्थ एवम साधन के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन
पर गलत दबाव बनाकर ये संस्था अपना
काम बनाते हैं।
इसके दुष्परिणाम आज सामने आ
रहे हैं। राज्य
शासित विश्वविद्यालयों आज सिर्फ डिग्री बांट और
बेच रहे हैं।
शिक्षा का
सुचारु रूप से संचालन एवम स्तर
का ध्यान रखना केंद्र और राज्य का साझा दायित्व है।
लेकिन आज राजनिति, जोड़तोड़, धनबल एवम निहित स्वार्थ आदि के चलते राज्यों और केंद्र के बीच राजनीतिक उठापटक चलती ही रहती है। इससे शिक्षा एवम शिक्षा की संस्थाएं घटिया राजनिति
के चलते बलि का बकरा बन जाती हैं। हालात इतने खराब हो
गये हैं कि
सरकार
बदलने के साथ उच्च शिक्षा की संस्थाएं पर कब्जा करने की होड़ सी मच जाती है और उच्च शिक्षा की संस्थाएं और उच्च शिक्षा बलि का बकरा बन जाती हैं और उन पर किसी भी तरह राजनीतिक नियंत्रण
स्थापित करने की दौड़ एवम होड़ सी मच जाती है। शैक्षिक
गुणवत्ता पर
कोई ध्यान ही नही दिया जाता है जोकि विश्वविद्यालयों की पूंजी है इसलिए उसकी रक्षा और संवद्र्धन की रक्षा सबसे आवश्यकहै। इस दृष्टि से विश्वविद्यालयों के ढांचे एवम शिक्षा पर ध्यान
देना होगा और उन्हें शिक्षा के ष्रेश्ठ्तम स्वायत्त केंद्रों के रूप में विकसित करना होगा।
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